संतोष सारंग
जलीय जीवों में डाॅल्फिन एक महत्वपूर्ण जीव है। नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षित रखने, भोजन चक्र की प्रक्रिया को बनाये रखने एवं पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए डाॅल्फिन को बचाना जरूरी है। गंगा एवं उसकी सहायक नदियां, नेपाल से निकलने वाली नदियां इस जलचर जीव के जीवन, प्रजनन व अठखेलियों के लिए अपना जल संसार न्यौछावर करती रही हैं। किंतु मैली होती गंगा व अन्य नदियां डाॅल्फिन के जीवन के लिए खतरा भी उत्पन्न कर रही है। इस चिंता के बीच डाॅल्फिन बचाने का प्रयास भी हो रहा है, जो स्वागतयोग्य है।
बिहार में सुल्तानगंज से लेकर बटेश्वरस्थान (कहलगांव) तक का गंगा का 60 किलोमीटर का जल क्षेत्र 1991 में ‘डाॅल्फिन अभ्यारण्य क्षेत्र’ घोषित किया गया। एशिया का एकमात्र यह डाॅल्फिन संरक्षित क्षेत्र तब से इको टूरिज्म के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थल बन गया है। एक अनुमान के मुताबिक, 10 साल पहले इस संरक्षित क्षेत्र में करीब 100 डाॅल्फिन थे। आज इसकी संख्या बढ़कर 160-70 हो गयी है। यह सरकारी-गैरसरकारी प्रयासों का नतीजा है। यहां ब्लाइंड रिवर डाॅल्फिन प्रजाति की डाॅल्फिन पायी जाती है। इसका दूसरा नाम गंगेटिक डाॅल्फिन है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत, नेपाल, बांग्लादेश में करीब 3200 डाॅल्फिन बची है।
डाॅल्फिन के प्रति मछुआरों व आम लोगों को जागरूक करने एवं इस जलीय जीव की जिंदगी बचाने के उद्देश्य से बिहार सरकार ने 2011 में डाॅल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया। इस साल 5 अक्टूबर पहली बार ‘डाॅल्फिन डे’ मनाया गया है। इस दिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने डाॅल्फिन पर उत्कृष्ट काम करने के लिए डाॅ गोपाल शर्मा को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया है।
गंगा का इतना विस्तृत क्षेत्र छोड़कर भागलपुर को इस जल क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने के पीछे कुछ इकोलाॅजिकलकारण रहे हैं। भारतीय प्राणी सर्वेक्षण, गंगा समभूमि प्रादेशिक केंद्र, पटना के प्रभारी सह वैज्ञानिक डाॅ गोपाल शर्मा को कहना है कि यहां गंगा की गहराई डाॅल्फिन के विचरण-प्रजनन के लिए अनुकूल है। पानी का वाॅल्यूम अच्छा रहता है। नदी के दोनों किनारे फिक्स रहते हैं। कटाव की समस्या नहीं है। ये सब स्थितियां डाॅल्फिन के अनुकूल है।
भागलपुर वन प्रमंडल के वन परिसर पदाधिकारी वीरेंद्र कुमार पाठक कहते हैं कि वन विभाग के पास संसाधन नहीं है। मोटरबोट हैं तो खराब पड़े हैं। नाव भाड़े पर लेना पड़ता है। इसके बावजूद साल में दो-तीन बार विभाग की टीम पेट्रोलिंग करती है। डाॅल्फिन का शिकार न हो इसके लिए डाॅल्फिन मित्र बनाया गया है। मछुआरों को सख्त हिदायत है कि वे मछलियों को पकड़ने के लिए छोटे-छोटे जाल न लगाएं, पर चोरी-छिपे वे जाल लगा देते हैं। उन्हें सिर्फ मोटी जाल लगाना है। समय-समय पर मछुआरों को जागरूक करने का कार्यक्रम चलाया जाता है, ताकि छोटी मछलियों का शिकार न किया जाये। छोटी मछलियां डाॅल्फिन का आहार है। भोजन नहीं मिलेगा, तो डाॅल्फिन फरक्का में बढ़ जायेगा। मछुआरों के आंदोलन व गंगा दस्यु के गैंगवार के कारण डाॅल्फिन संरक्षण में विभाग को परेशानी होती है। पुलिस-प्रशासन की पूरी मदद नहीं मिलती है। विभाग की माने तो हाल के वर्षों में इंडियन वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1971 के प्रावधानों के बारे में मछुआरों को जागरूक करने व विभागीय सख्ती के कारण डाॅल्फिन की किलींग रुकी है। पटना में भी डाॅल्फिन का शिकार कम हुआ है।
हालांकि, कहलगांव स्थित एनटीपीसी थर्मल पावर से निकलने वाले रासायिनक कचरे, नाले से बहने वाले शहर के कचरे एवं शिल्क कपड़े की धुलाई में प्रयुक्त होने वाले केमिकल्स गंगा में बहाये जाते हैं, जो जलीय जीवों के लिए खतरनाक साबित होते हैं। कुछ साल पूर्व यहां बड़ी संख्या में मछलियों की मौत हो गयी थी। इस पर किसी का अंकुश नहीं है।