मिट्टी, पानी बचाने में लगे हैं किसान

—– संतोष सारंग

मधुबनी के मधवापुर प्रखंड के सुजातपुर गांव की एमबीए पास मंदाकिनी ने पीओ की नौकरी छोड़ कर अपने गांव में गोबर व भूसी से बड़े पैमाने पर वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन शुरू कर आसपास के किसानों को अपना खेत बचाने को प्रेरित कर रही हैंक़ केमिकल फर्टिलाइजर व पेस्टिसाइड़स के प्रयोग से जिले के कई बड़े जोत वाले किसानों के खेत अब पहले जैसी उपज नहीं दे रहे। फसल के ईल्ड पर विपरित असर पड़ने के साथ परागन करने वाले कीट-पतंग भी मर रहे हैं। इससे निजात पाने के लिए सिर्फ कंपोस्ट ही विकल्प है। मंदाकिनी किसानों को वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन करने, उपयोग करने एवं रासायनिक खाद का प्रयोग न करने को लेकर किसानों को जागरूक कर रही हैं। शुरू में जिसने भी मंदाकिनी के काम का मजाक उड़ाया था, वे आज उसे अपना आर्दश मान रहे हैं़ इस काम के लिए मंदाकिनी ने विकास चौधरी को साथ लिया और निकल पड़ी गांव के लिए कुछ अलग करने। मंदाकिनी को उसके आईएएस दादा एवं पिता मणिभूषण ने भी इस काम में हरसंभव मदद की़ 2010 में नौकरी छोड़ने के बाद एक छोटे से यूनिट से उसने वर्मी कंपोस्ट बनाने का काम शुरू किया। 250 क्विंटल से आज उसके यूनिट की उत्पादन क्षमता 2500 एमटी हो गयी है़ मधुबनी के अलावा दरभंगा, सीतामढ़ी, समस्तीपुर के किसान यहां बने कंपोस्ट खरीद कर ले जा रहे हैं। मधुबनी के जिला कृषि पदाद्यिकारी केके झा ने मंदाकिनी के कार्य की प्रशंसा करते हुए कहा कि किसानों को जैविक खेती की ओर बढ़ना होगा, यदि अपनी जमीन व फसल बचानी है तो।
जैविक अभियान को मुजफ्फरपुर जिले के किसान भी आगे बढ़ा रहे हैं। मीनापुर प्रखंड के प्रगतिशील किसान मनोज कुमार के खेती में नायाब प्रयोग के कारण सूबे के किसानों के प्रेरणास्त्रोत बन गये हैं। मनोज के काम को देखने मुख्यमंत्री भी आ चुके हैं। विदेशी टीम आ चुकी है। पारू प्रखंड के जलीलनगर गांव के किसान जयमंगल राम, राजमंगल राम, मोहन दास, अमरनाथ मवेशी इसलिए पाल रहे हैं कि उनके खेतों को पर्याप्त मात्र में जैविक खाद मिल सके। दो दर्जन से भी अधिक किसान जैविक खेती कर खेत, फसल व पर्यावरण बचाने में लगे हैं। इन किसानों को मिट्टी की सेहत को लेकर चिंता है कि जमीन ऊसर न हो जाये। मोहन दास का कहना है कि अनाज शुद्घ होगा तभी तन-मन भी सेहतमंद रहेगा। गांव के किसानों ने जागृति किसान क्लब बना कर जैविक खेती के अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। जिले के सरैया प्रखंड स्थित गोविंदपुर गांव के श्रीकांत कुशवाहा की कोशिश से गांव को जैविक ग्राम घोषित किया गया है। वे जादूगरी का सहारा लेकर लोगों को रासायनिक खेती छोड़ जैविक खेती अपनाने को ले जागरूक कर रहे हैं। गोविंदपुर के किसान शिवनंदन श्रीवास्तव, रविन्द्र प्रसाद, सीताराम भगत, चिरामन, रघुनाथ प्रसाद समेत दर्जनों किसानों ने एक-एक एकड़ में जैविक तरीके से सब्जी की खेती किया। साथ ही, खेत के मेड़ पर पौधे लगा कर गांव को एक नया लुक दिया है। जैविक खेती के क्षेत्र में नायाब काम करनेवाले जादूगर कुशवाहा जल, जमीन व हवा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए जिले व बाहर जाकर सैकड़ों किसानों को प्रशिक्षित करते हैं। गोविंदपुर गांव के किसानों के काम का ही नतीजा है कि 2006 में जिला कृषि विभाग ने गोविंदपुर को ‘जैविक ग्राम घोषित’ किया और एसबीआइ ने उसे गोद लिया।
जैविक खेती के जानकार श्रीकांत कहते हैं कि रासायनिक खाद व कीटनाशक के प्रयोग से मिट्टी की उर्वर शक्ति ही नष्ट नहीं होती, बल्कि सिंचाई में पानी की बर्बादी भी अधिक होती है। फसल के मित्र कीट-पतंगे मर जाते हैं। परागन की प्रक्रिया बाधित होती है, जिससे फसल की उपज में कमी आती है। केंचुए पौधे की जड़ तक ऑक्सीजन पहुंचाता है। बगुला और कौए पटवन के समय कीट-पतंगों को चुन-चुनकर खाते हैं। जिससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व, जीवाणु, ह्यूमस और पीएच बैलेंस बने रहते हैं। जिस फसल में मधुमक्खी का बॉक्स रहता है उसमें परागन की क्रिया से 20 प्रतिशत पैदवार बढ़ जाती है। जबकि रासायनिक खेती से ग्रीन हाउस गैसों के बनने का खतरा बढ़ जाता है। रासायिनक खाद व कीटनाशक के बदले नीम, लहसून, तुलसी आदि के संयोग से बने कीटनाशक मित्रकीट को नुकसान पहुंचाये बिना फसल को पोषण देता है।
कृषि विज्ञान केंद्र, सरैया के मृदा वैज्ञानिक केके सिंह कहते हैं कि पेस्टीसाइड्स और नाइट्रोजन का अधिक प्रयोग करने से जल प्रदूषण भी हो रहा है। नाइट्रोजन का 60 प्रतिशत अंश वायुमंडल में उड़ जाता है। बारिश के दिनों में भूजल तक पेस्टीसाइड्स पहुंच जाता है, जिस कारण 40-50 फीट तक का पानी पीने योग्य नहीं रहता है। इसकी जगह नीम से निर्मित जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाये तो पानी की खपत के साथ-साथ खेतों में लाभदायक कीट बचेंगे और प्रदूषण से बचा जा सकता है। जैविक खेती से 40-50 प्रतिशत पानी की बर्बादी भी रुकती है। ड्रिप इरिगेशन से पानी को बचाया जा सकता है।
आज प्रदेश के ऐसे सैकड़ों किसानों का उदाहरण दिया जा सकता है जो वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन सिर्फ इसलिए नहीं करते हैं कि उनकी आमदनी में बढ़ोतरी हो या उनके खेत व फसल सुरक्षित रहे, बल्कि मिट्टी, हवा, पानी बचाने की चिंता भी उनके इसे काम में साफ-साफ दिखती है। बिना सरकारी सहयोग के।

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