काला पानी की सजा भुगत रहे कई गांव

नदी है, पानी है। पानी से घिरे खेत-खलिहान। किंतु सदा नीरा नहीं, है जहरीला। 13 बरस से अभिशप्त इलाका। आम जिंदगी, उर्वर धरती, हरियाली पर काली साया, मनुषमारा का। ‘मनुषमारा’ एक नदी है, जिसे लोग कहते रहे हैं जीवनदायिनी। ये ही आज छिन रही हैं लोगों की खुशियां, खेतों की उर्वरता, फसलों की हरियाली। देने को दे रही सिर्फ गंभीर बीमारीजनित काला पानी, जहरीला जल। ताउम्र के लिए बच्sitamarhi 1 sitamarhi 2चे-बूढ़े हो रहे विकलांग, इलाका उजाड़। यही तो कहानी है रून्नीसैदपुर व बेलसंड के कई गांवों की।

सीतामढ़ी के रून्नीसैदपुर व बेलसंड के आधा दर्जन गांवों के लिए मानो ‘मनुषमारा’ नदी अभिशाप बन गयी है। उत्तर बिहार के इस सुदूर इलाके के लोग 15 साल से काला पानी की सजा भुगत रहे हैं। खड़का पंचायत के भादा टोला गांव समेत हरिदोपट्टी, अथरी, रैन विशुनी, बगाही रामनगर पंचायतों की स्थिति बनी भयावह है। हजारों एकड़ जमीन पर काला व जहरीला पानी पसरा हुआ है। इसके चलते लोगों की खेती गयी। आजीविका का साधन छीन गया है और मुफ्त में मिल रहीं गंभीर बीमारियां। पशु-पक्षी, कीट-पतंग मर रहे हैं। जलनिकासी के लिए प्रखंड व जिला मुख्यालयों पर ग्रामीणों ने आंदोलन चलाया, लेकिन समस्या का समाधान नहीं हुआ। अधिकारी बेफ्रिक हैं, और लोग परेशान। काला पानी का असर खेतों से लेकर घरों तक हो रहा है। सबसे अधिक प्रभावित भादा टोला है, जो रसायन घुले पानी से घिरा है। इस गांव के लगभग दो दर्जन लोग विकलांग हो चुके हैं। लालबाबू राम, रामसकल राम, सुखदेव राम, कुलदीप राम व राजदेव मंडल पुरी तरह निःशक्त हो गये हैं। चलने-फिरने में असमर्थ हैं। सगरी देवी, सुमित्रा देवी, सगरी देवी, कुसमी देवी समेत दो दर्जन लोग विकलांगता के शिकार हो चुके हैं। भादाडीह टोला के ही चार लोग हसनी देवी, बलम राम, सिंकिंद्र राम व विनय राम कुष्ठ रोग से ग्रसित हैं। बलम राम बताते हैं कि हम अभिशाप ढो रहे हैं। हमें सिर्फ आश्वासन मिला है। कोई मदद करने नहीं आया है। ‘जल ही जीवन है, लेकिन इनके लिए पानी मौत बन चुकी है’ जुमला बन गया है।
इस इलाके का करीब 20,000 एकड़ भूभाग दूषित पानी में डूबा है। स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि यहां के लोग अपनी माटी, अपना गांव छोड़कर पलायन करने को मजबूर हैं। पिछले दिनों तिरहुत प्रक्षेत्र के आयुक्त अतुल कुमार ने रून्नीसैदपुर के दो गांवों भादा टोल व हरिदोपट्टी का दौराकर वहां की अभिशप्त जिंदगी को निकट से देखकर द्रवित हुए। लौटकर उन्होंने अपनी वेबसाइट पर पूरी रिपोर्ट लिखी थी। इन गांवों में अधिकारियों की टीम जाकर शिविर लगाया और बुनियादी जरूरतों को पूरी करने की पहल शुरू की, लेकिन उनके तबादले के बाद सबकुछ स्थिर हो गया। रैन विशुनी पंचायत के मुखिया प्रेमशंकर सिंह कहते हैं कि यहां के किसान मर रहे हैं। जलजमाव के कारण फसल नहीं हो रहा है। जो जमीन सूखी है, वहां जंगल उग गये हैं। बनसुगर से लेकर कई जंगली जानवरों से लोग परेशान हैं। जमीन भी नहीं बिक रही है। जमीन से कुछ नहीं मिला, फिर भी मालगुजारी देनी पड़ती है। लोग निराश हो चुके हैं। लेबर तो पलायन कर गये, लेकिन किसान कहां जाये।
यह समस्या 1997 की बाढ़ के बाद तब शुरू हुआ, जब मधकौल गांव के पास बागमती नदी का बायां तटबंध टूटने के कारण मनुषमारा नदी, जो बागमती से मिलती थी, उसका मुहाना ब्लाॅक हो गया और उसका एक किनारा बेलसंड कोठी के पास टूट गया। इसके बाद इसका पानी रून्नीसैदपुर से लेकर बेलसंड से धरहरवा गांव तक फैल गया। उधर, रीगा चीनी मिल से निकलने वाला कचरा इस जलधारा के जरिये करीब दो दर्जन गांवों तक पहुंच गया और समस्या को और भयावह बना दिया।
प्रेमशंकर सिंह बताते हैं कि बागमती पर रिंग बांध बनाने से यह समस्या उत्पन्न हुई। इसका समाधान जलनिकासी ही है। इसके लिए नहर खोदकर इस पानी को निकाला जाये, लेकिन यह संभव होता नहीं दिख रहा है। काला पानी की जलनिकासी के लिए अनवरत संघर्ष चलते रहे हैं। एक दशक पूर्व ही राज्य के जल संसाधन विभाग ने जलनिकासी के लिए एक विस्तृत योजना बनानी शुरू की, जो आज तक अमल में नहीं आयी। अभी हाल में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने पर्यावरण मानकों के उल्लंघन के लिए रीगा चीनी मिल को नोटिस जारी किया।

  • संतोष सारंग

जौ व जई से पर्यावरण बचाने की मुहिम

  • संतोष सारंग

ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते ख़तरों को देखते हुए और लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करने के मकसद से हर साल पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। सवाल यह उठता है कि क्या जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दों से निपटने के लिए क्या वैश्विक स्तर पर गंभीर प्रयास हो रहे हैं। पर्यावरण के बिगाड़ का मामला किसी देश या विदेश से नहीं जुड़ा है बल्कि इसको बिगाड़ने में आज छोटे बड़े सभी देश शामिल हैं। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन और तापमान में वृद्धि का सबसे बुरा असर परिस्थितीय तंत्र और जीवन चक्र पर पड़ा है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन ने पर्यावरण को तो दूषित किया ही है, साथ ही साथ इसने फसल चक्र को भी काफी प्रभावित किया है। सवाल यह उठता है कि पर्यावरण को बचाने के लिए क्या वैश्विक स्तर पर कुछ हो रहा है? क्या हम कभी इस समस्या से निपट पाएंगे? क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ वातावरण उपलब्ध करा पाएंगे? वर्तमान परिस्थिति को देखकर तो ऐसा नहीं लगता। हां कुछ लोग ज़रूर हैं जो पर्यावरण को बचाने के लिए प्रयासरत हैं। हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण को बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ केद्र सरकार और राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी नहीं है।

पर्यावरण को स्वच्छ रखना हम सब की ज़िम्मेदारी है। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा आज जिस तरह से बढ़ रहा है, उससे कोई अंजान नहीं है। शहर तो शहर, गांव-देहात के लोग भी पर्यावरण संरक्षण की दिशा में थोड़े-बहुत ही सही, पर सोचने लगे हैं। छत्तीसगढ़ में आई विनाशकारी प्राकृतिक आपदा एवं चक्रवाती तूफान फैलिन ने सोए लोगों को जगाया है। सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर धरती को बचाने को लेकर चिंता की जा रही है। गत दो-तीन साल से बिहार के समाचार पत्रों ने दीपावली पर केरोसिन व पटाखों का प्रयोग न करने को लेकर स्कूली छात्र-छात्रों व लोगों के बीच अभियान चलाया है। इसका असर भी दिख रहा है। बीते दीपावली पर मुज़फ़्फ़रपुर के छात्र-छात्रों ने पटाखों के पैसे बचा कर एक अस्पताल में भर्ती मरीजों के बीच फल व कपड़े बांट कर पर्यावरण बचाने का संदेश दिया। मोतिहारी में एक स्कूल के बच्चों व प्रबंधन ने मिलकर प्रकाश पर्व दीपावली पर पौधे रोप कर अभियान को आगे बढ़ाया।

जौ और जई से पर्यावरण बचाने का मुहिमपॉलीथिन से मिट्टी, पानी दूषित हो रहा है। इसके अंधाधुंध प्रयोग से नाले, नदियां एवं शहर के ड्रेनेज सिस्टम की सेहत बिगड़ रही है। कागज़ और कपड़े के झोले गायब हो गए। एक समय था जब हम बाज़ार जाते थे, घर से कपड़े का थैला ले जाना नहीं भूलते थे। लेकिन आज हम एक माचिस भी खरीदते हैं, तो दुकानदार से पॉलीथिन मांगना नहीं भुलते हैं। पॉलीथीन के बढ़ते इस्तेमाल से आज घर-घर ,गली-गली ,सड़कों पर पॉलीथिन का कचरा बिखरा पड़ा दिख जाता है। जानवर कूड़े के ढेर पर जूठन या अन्य सामान खाते हैं, वे पॉलीथिन भी खा जाते हैं। यह उसके लिए हानिकारक है। पॉलीथिन के खतरे से निपटने के लिए कई प्रदेशों ने इस पर प्रतिबंध लगाया है। मुज़फ़्फ़रपुर नगर निगम ने हाल में पॉलीथिन के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया है। प्रतिबंध के बावजूद पॉलीथिन का प्रयोग करने वाले दुकानदारों पर जुर्माना लगाया जा रहा है। इस तरह की कार्रवाई के ज़रिए ही हम पॉलीथिन के इस्तेमाल को कम कर सकते हैं।

इधर, कृषि क्षेत्र में भी ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटने के लिए कवायद चल रही है। बिहार का कृषि विभाग तापमान को नियंत्रित रखने वाली खरीफ व रबी की चार फसलों जौ, जई, मडुवा व बाजरे से पर्यावरण संरक्षण की मुहिम को तेज करने जा रहा है। राज्य सरकार ने राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में इन चारों फसलों को शामिल किया है, ताकि किसान इन फसलों को उगा कर पर्यावरण मित्र की अहम भूमिका निभा सके। दरअसल, जौ व जई की खेती में लागत कम होने के साथ रासायनिक खाद व कीटनाशकों का प्रयोग भी नहीं करना पड़ता है। इन फसलों को पानी भी अधिक नहीं चाहिए। लिहाज़ा इसकी खेती से पानी का बचत भी होगा। इन फसलों को लगाने लिए विभाग ने किसानों को प्रोत्साहन देने का मन बनाया है। जौ व जई की खेती के लिए 1600 रुपए प्रति एकड़ प्रोत्साहन राशि दी जाएगी। मुज़फ़्फ़रपुर के जिला कृषि पदाधिकारी के के शर्मा कहते हैं ‘‘राज्य सरकार ने टीडीसी को जौ व एनएससी को जई का बीज उपलब्ध कराने का निर्देश दिया है।

जौ और जई से पर्यावरण बचाने का मुहिममक्का, धान, गेहूं के मुकाबले इन फसलों में रासायनिक खाद व कीटनाशकों का प्रयोग नगण्य होता है। राज्य सरकार की ओर से इन फसलों को प्रोत्साहन देने का मुख्य उदेश्य किसानों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करना है। केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारें पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिए तरह तरह के उपाय कर रही है। लेकिन लोगों में जागरूकता की कमी की वजह से सरकार की ओर से चलाई जा रही पर्यावरण बचाओ मुहिम का फायदा बहुत ज़्यादा नहीं हो पा रहा है। पर्यावरण को साफ सुथरा बनाए रखने के लिए सभी को अपना कर्तव्य समझना होगा और साथ मिलकर काम करना होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर पर्यावरण के प्रति हमने संजीदगी न दिखाई तो आने वाला समय भयावक हो सकता है। अब वक्त आ गया है कि सभी राष्ट्र विकसित और विकासशील की श्रेणी से उठकर पर्यावरण खतरे का निदान ढूंढे। हमें पुरानी गलतियों से सीख लेकर एक साथ इस समस्या के निदान के लिए काम करना होगा।

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मैली गंगा में डाॅल्फिन बचाने की चुनौती

    संतोष सारंग

जलीय जीवों में डाॅल्फिन एक महत्वपूर्ण जीव है। नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षित रखने, भोजन चक्र की प्रक्रिया को बनाये रखने एवं पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए डाॅल्फिन को बचाना जरूरी है। गंगा एवं उसकी सहायक नदियां, नेपाल से निकलने वाली नदियां इस जलचर जीव के जीवन, प्रजनन व अठखेलियों के लिए अपना जल संसार न्यौछावर करती रही हैं। किंतु मैली होती गंगा व अन्य नदियां डाॅल्फिन के जीवन के लिए खतरा भी उत्पन्न कर रही है। इस चिंता के बीच डाॅल्फिन बचाने का प्रयास भी हो रहा है, जो स्वागतयोग्य है।
बिहार में सुल्तानगंज से लेकर बटेश्वरस्थान (कहलगांव) तक का गंगा का 60 किलोमीटर का जल क्षेत्र 1991 में ‘डाॅल्फिन अभ्यारण्य क्षेत्र’ घोषित किया गया। एशिया का एकमात्र यह डाॅल्फिन संरक्षित क्षेत्र तब से इको टूरिज्म के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थल बन गया है। एक अनुमान के मुताबिक, 10 साल पहले इस संरक्षित क्षेत्र में करीब 100 डाॅल्फिन थे। आज इसकी संख्या बढ़कर 160-70 हो गयी है। यह सरकारी-गैरसरकारी प्रयासों का नतीजा है। यहां ब्लाइंड रिवर डाॅल्फिन प्रजाति की डाॅल्फिन पायी जाती है। इसका दूसरा नाम गंगेटिक डाॅल्फिन है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत, नेपाल, बांग्लादेश में करीब 3200 डाॅल्फिन बची है।
डाॅल्फिन के प्रति मछुआरों व आम लोगों को जागरूक करने एवं इस जलीय जीव की जिंदगी बचाने के उद्देश्य से बिहार सरकार ने 2011 में डाॅल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया। इस साल 5 अक्टूबर पहली बार ‘डाॅल्फिन डे’ मनाया गया है। इस दिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने डाॅल्फिन पर उत्कृष्ट काम करने के लिए डाॅ गोपाल शर्मा को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया है।
गंगा का इतना विस्तृत क्षेत्र छोड़कर भागलपुर को इस जल क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने के पीछे कुछ इकोलाॅजिकलकारण रहे हैं। भारतीय प्राणी सर्वेक्षण, गंगा समभूमि प्रादेशिक केंद्र, पटना के प्रभारी सह वैज्ञानिक डाॅ गोपाल शर्मा को कहना है कि यहां गंगा की गहराई डाॅल्फिन के विचरण-प्रजनन के लिए अनुकूल है। पानी का वाॅल्यूम अच्छा रहता है। नदी के दोनों किनारे फिक्स रहते हैं। कटाव की समस्या नहीं है। ये सब स्थितियां डाॅल्फिन के अनुकूल है।
भागलपुर वन प्रमंडल के वन परिसर पदाधिकारी वीरेंद्र कुमार पाठक कहते हैं कि वन विभाग के पास संसाधन नहीं है। मोटरबोट हैं तो खराब पड़े हैं। नाव भाड़े पर लेना पड़ता है। इसके बावजूद साल में दो-तीन बार विभाग की टीम पेट्रोलिंग करती है। डाॅल्फिन का शिकार न हो इसके लिए डाॅल्फिन मित्र बनाया गया है। मछुआरों को सख्त हिदायत है कि वे मछलियों को पकड़ने के लिए छोटे-छोटे जाल न लगाएं, पर चोरी-छिपे वे जाल लगा देते हैं। उन्हें सिर्फ मोटी जाल लगाना है। समय-समय पर मछुआरों को जागरूक करने का कार्यक्रम चलाया जाता है, ताकि छोटी मछलियों का शिकार न किया जाये। छोटी मछलियां डाॅल्फिन का आहार है। भोजन नहीं मिलेगा, तो डाॅल्फिन फरक्का में बढ़ जायेगा। मछुआरों के आंदोलन व गंगा दस्यु के गैंगवार के कारण डाॅल्फिन संरक्षण में विभाग को परेशानी होती है। पुलिस-प्रशासन की पूरी मदद नहीं मिलती है। विभाग की माने तो हाल के वर्षों में इंडियन वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1971 के प्रावधानों के बारे में मछुआरों को जागरूक करने व विभागीय सख्ती के कारण डाॅल्फिन की किलींग रुकी है। पटना में भी डाॅल्फिन का शिकार कम हुआ है।
हालांकि, कहलगांव स्थित एनटीपीसी थर्मल पावर से निकलने वाले रासायिनक कचरे, नाले से बहने वाले शहर के कचरे एवं शिल्क कपड़े की धुलाई में प्रयुक्त होने वाले केमिकल्स गंगा में बहाये जाते हैं, जो जलीय जीवों के लिए खतरनाक साबित होते हैं। कुछ साल पूर्व यहां बड़ी संख्या में मछलियों की मौत हो गयी थी। इस पर किसी का अंकुश नहीं है।

सिमट रहा झील का आंचल, पक्षी का कलरव भी मद्धिम

‘किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी
नदिया किनार में गईया मर गइल
त मछली खोदी-खोदी खाई
किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी’’
गांव-गंवई के ये बोल जब इन महिलाओं के कंठ से उतरकर पास के चौरों और नदियों के जल से तरंगित होती हैं तो झील का विहार करने वालों का यहां आना सार्थक हो जाता है। नदी, जल, मछली, पक्षी, चौर, झील जैसे शब्द भी यहां के लोक गीतों में पिरोया हुआ है। हम बात कर रहे हैं मिथिलांचल के मनोहारी चौरों-झीलों के मनोरम दृश्यों की, प्रवासी पक्षियों के सुंदर नजारों की, आसपास कलकल बहती नदियों की और इस बीच धिसट-धिसटकर सरकती जिंदगियों की।
यह है ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ । यह कई छोटे-छोटे चौरों की एक ऐसी ऋंखला है, जिसे लोग नरांच झील के नाम से भी जानते हैं। यह पक्षी विहार के लिए सर्वोत्तम जगह है। यहां गर्मी की विदाई के साथ मेहमान पक्षियों का आगमन शुरू हो जाता है। खासकर, साइबेरियाई पक्षियों के लिए दरभंगा जिले के कुशेश्वरस्थान प्रखंड का यह इलाका ससुराल से कम नहीं है। बिहार के अन्य प्रमुख झीलों की तरह यहां से विदेशी पक्षियों की रूसवाई पूरी तरह नहीं हुई है। शांत व शीतल जल में हजारों प्रवासी पक्षियों का कतारबदद्घ होकर भोजन व प्रजनन में मगर रहने और तरह-तरह की अदाओं से फिजाओं को गुलजार करने का दृश्य भला किन आंखों को नहीं भायेगा?
दरभंगा मुख्यालय से तकरीबन 45 किलोमीटर का सफर तय कर जब आप बेरि चौक पहुंचेंगे तो ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ का इलाका शुरू हो जाता है। निर्माणाधीन दरभंगा-कुशेश्वरस्थान नई रेल लाइन पार करते ही घुमावदार सोलिंग सड़क से होते हुए आगे बढ़ते ही दिखता है ऊबर-खाबड़ जमीन। कहीं जल से भरा तो कहीं सूखे खेत। दूर तक फैले जलकुंभी तो कहीं गेहूं के छोटे-छोटे, हरे-हरे पौधे। किसान मशगुल हैं रबी के फसल को सींचने में, तो बच्चे मशगुल हैं खेलने में। कहीं कुदाल चल रहा है तो कहीं क्रिक्रेट का बल्ला। झील का यह सूखा क्षेा भी कभी पानी से लबालब भरा रहता था, लेकिन पिछले कई सालों से यह झील रूठ गया लगता है। यहां खड़े पीपल के पेड़ गवाह हैं कि कभी इसका तना भी पानी में डूबा रहता था। आखिर इस झील और इसके प्रियतम निर्मल जल को क्या हो गया है? यहां आसपास रहने वाले लोगों को भी इसकी वजह मालूम नहीं।
5-6 चौर मिलकर यह विस्तृत क्षेा नरांच झील कहलाता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 6700 हेक्टेयर क्षेाफल में फैले ये चौर और 1400 हेक्टेयर लो लैंड का यह वृहत क्षेाफल वाला यह इलाका आज भले सिमट गया हो, लेकिन प्रवासी पक्षियों का अतिथि सत्कार कम नहीं हुआ है।
सहरसा जिले के मनगर गांव से सटा महरैला चौर, बिसरिया पंचायत से होकर बहती कमला नदी, विशुनपुर गांव का सुल्तानपुर चौर और कोसी नदी का स्नेह आज भी इस झील को जिंदा रखे हुए है। नाव पर चढ़कर जलकुंभी निकालती ये महिलाएं, घोंघा-सितुआ छानते बच्चे, केकड़ा पकड़ भोजन का जुगाड़ करते लोग और तितली नाम का यह जलीय पौधा। क्या यह सब कम है प्रवासी पक्षियों की मेहमाननवाजी के लिये !
कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य। लगभग 15 दुर्लभ किस्म के प्रवासी पक्षियों का तीर्थ स्थल। लालसर, दिधौंच, मेल, नक्टा, गैरी, गगन, सिल्ली, अधनी, हरियाल, चाहा, करन, रत्वा, गैबर, हसुआ दाग जैसे मेहमान पक्षियों से गुलजार रहने वाला प्रकृति का रमणीक स्थान। जब यहां सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर नेपाल, तिब्बत, भूटान, अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान, मंगोलिया, साइबेरिया आदि देशों से ये रंग-बिरंगे पक्षी नवंबर में पहुंचते हैं तो पक्षी व प्रकृति प्रेमियों का मन खिल उठता है। चीड़ीमारों की भी बांछें खिल जाती हैं। रात के अंधेरे में ये चीड़ीमार इनका शिकार करने से नहीं चूकते हैं। हालांकि, कई बार ये पकड़े जाते हैं। झील के आसपास रहने वाले लोग बताते हैं कि अब प्रवासी पक्षियों का आना कम हो गया है । चीड़ीमार पानी में नशीली दवा डालकर पक्षी को बेहोश कर पकड़ लेते हैं। और इसे मारकर बड़े चाव से इसके मांस को खा जाते हैं। यहां के कई लोग इन पक्षियों का शिकार करते पकड़े गये और हवालात पहुंच गये। बहरहाल, पक्षियों का शिकार तो कमा है, लेकिन पानी के सिमटने से झील का आंचल छोटा हो गया है। इसकी पेटी में जहां कभी पानी भरा रहता था, वहां आज रबी फसल उगाये जा रहे हैं। जलीय जीवों, पौधों और मेहमान पक्षियों के घर-आंगन में गेहूं व सरसों के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं। गरमा धान की रोपनी के लिये बिचरा जमाया जा रहा है। पंपिंग सेट और ट्रैक्टर की आहट से मेहमान पक्षी आहत हैं। यहां चल रहे दो-दो पंपिंग सेट यह इंगित करने के लिये काफी हैं कि किस तरह झील और पक्षियों की पीड़ा से अनभिज्ञ किसान शेष बचे पानी को भी सोख लेना चाहते हैं। लिहाजा, इसमें इनका क्या दोषै? इन भोले-भाले किसानों को क्या मालूम कि प्रकृति के लिये पक्षी व जीव-जंतु कितना महत्वपूर्ण है। पर्यावरण के सेहत से इनका क्या सरोकार ? झोपड़ी में अपनी जिंद्गी की रात गुजारने वाले साधनहीन आबादी को पक्षी अभयारण्य की रक्षा का मां किसी ने दिया भी तो नहीं? हालांकि झील व प्रवासी पक्षियों के अस्तित्व को बचाने व लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से कभी यहां ‘रेड कारपेट डे’ मनाया जाता था। बॉटनी के एक प्रोफेसर डॉ एसके वर्मा की पहल पर ये कार्यक्रम दिसंबर में आयोजित होते थे, लेकिन यह सिलसिला कुछ साल चलकर थम गया। उद्घारक की बाट जोहता यह झील धीरे-धीरे वीरानी व उदासी की चादर ओढे चला जा रहा है। फिलवक्त किसी पर्यावरण व पक्षी प्रेमियों की आस में एक बार फिर ये पक्षी दूर-देश से यहां विचरण को आये हैं तो उम्मीद की एक किरण जगती है।
ज्यादा दिन नहीं गुजरे, जब ठंड के मौसम में हजारों प्रवासी पक्षियों का झूंड मन मोह लेता था। पक्षियों के कलरव से लोगों की नींद गायब हो जाती थी। मगर अब वो दिन कहां रहा। प्रकृति का गुस्सा, कोसी-कमला का बदलता मिजाज और चौरों में भर रहे गाद से झील बेहाल है। इसका असर पक्षियों के निवाले पर भी पड़ रहा है। ये फटी धरती और मृत पड़े घोंघा-सितुआ के ये अवशेष इस झील का दर्द बयां करने के लिये काफी हैं।
बताते चलें कि कुशेश्वरस्थान प्रखंड के जलजमाव वाले चौदह गांवों को नैसर्गिक, भूगर्भीय विशेषता और खासकर प्रवासी पक्षियों के लिये अनुकूल वातावरण के लिये इस झील को वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 (1991 में संशोधित) के तहत ‘कुशेश्वरस्थान पक्षी अभयारण्य’ घोषित किया गया। मिथिलांचल का यह इलाका पर्यटन के लिये भी खास स्थान रखता है। इस खासियत के चलते इस झील को खुशियों के दिन लौटाने होंगे। दुर्लभ किस्म के प्रवासी पक्षियों के मिटते अस्तित्व को बचाना होगा। प्राकृतिक जलस्त्रोतों, यथा-झील, चौर, नदी, नाला, बाबड़ी, पइनों को पुनजिर्वीत करना होगा। अन्यथा, हम अपने सहचर से बेबफाई के लिए दोषी होंगे। और तब हमारी जुबान भी इस गीत को शब्द देने में लड़खड़ायेगी कि
‘किये न पिअइछी जलवा हे पंडित ज्ञानी़़़़़

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मिट्टी, पानी बचाने में लगे हैं किसान

—– संतोष सारंग

मधुबनी के मधवापुर प्रखंड के सुजातपुर गांव की एमबीए पास मंदाकिनी ने पीओ की नौकरी छोड़ कर अपने गांव में गोबर व भूसी से बड़े पैमाने पर वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन शुरू कर आसपास के किसानों को अपना खेत बचाने को प्रेरित कर रही हैंक़ केमिकल फर्टिलाइजर व पेस्टिसाइड़स के प्रयोग से जिले के कई बड़े जोत वाले किसानों के खेत अब पहले जैसी उपज नहीं दे रहे। फसल के ईल्ड पर विपरित असर पड़ने के साथ परागन करने वाले कीट-पतंग भी मर रहे हैं। इससे निजात पाने के लिए सिर्फ कंपोस्ट ही विकल्प है। मंदाकिनी किसानों को वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन करने, उपयोग करने एवं रासायनिक खाद का प्रयोग न करने को लेकर किसानों को जागरूक कर रही हैं। शुरू में जिसने भी मंदाकिनी के काम का मजाक उड़ाया था, वे आज उसे अपना आर्दश मान रहे हैं़ इस काम के लिए मंदाकिनी ने विकास चौधरी को साथ लिया और निकल पड़ी गांव के लिए कुछ अलग करने। मंदाकिनी को उसके आईएएस दादा एवं पिता मणिभूषण ने भी इस काम में हरसंभव मदद की़ 2010 में नौकरी छोड़ने के बाद एक छोटे से यूनिट से उसने वर्मी कंपोस्ट बनाने का काम शुरू किया। 250 क्विंटल से आज उसके यूनिट की उत्पादन क्षमता 2500 एमटी हो गयी है़ मधुबनी के अलावा दरभंगा, सीतामढ़ी, समस्तीपुर के किसान यहां बने कंपोस्ट खरीद कर ले जा रहे हैं। मधुबनी के जिला कृषि पदाद्यिकारी केके झा ने मंदाकिनी के कार्य की प्रशंसा करते हुए कहा कि किसानों को जैविक खेती की ओर बढ़ना होगा, यदि अपनी जमीन व फसल बचानी है तो।
जैविक अभियान को मुजफ्फरपुर जिले के किसान भी आगे बढ़ा रहे हैं। मीनापुर प्रखंड के प्रगतिशील किसान मनोज कुमार के खेती में नायाब प्रयोग के कारण सूबे के किसानों के प्रेरणास्त्रोत बन गये हैं। मनोज के काम को देखने मुख्यमंत्री भी आ चुके हैं। विदेशी टीम आ चुकी है। पारू प्रखंड के जलीलनगर गांव के किसान जयमंगल राम, राजमंगल राम, मोहन दास, अमरनाथ मवेशी इसलिए पाल रहे हैं कि उनके खेतों को पर्याप्त मात्र में जैविक खाद मिल सके। दो दर्जन से भी अधिक किसान जैविक खेती कर खेत, फसल व पर्यावरण बचाने में लगे हैं। इन किसानों को मिट्टी की सेहत को लेकर चिंता है कि जमीन ऊसर न हो जाये। मोहन दास का कहना है कि अनाज शुद्घ होगा तभी तन-मन भी सेहतमंद रहेगा। गांव के किसानों ने जागृति किसान क्लब बना कर जैविक खेती के अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। जिले के सरैया प्रखंड स्थित गोविंदपुर गांव के श्रीकांत कुशवाहा की कोशिश से गांव को जैविक ग्राम घोषित किया गया है। वे जादूगरी का सहारा लेकर लोगों को रासायनिक खेती छोड़ जैविक खेती अपनाने को ले जागरूक कर रहे हैं। गोविंदपुर के किसान शिवनंदन श्रीवास्तव, रविन्द्र प्रसाद, सीताराम भगत, चिरामन, रघुनाथ प्रसाद समेत दर्जनों किसानों ने एक-एक एकड़ में जैविक तरीके से सब्जी की खेती किया। साथ ही, खेत के मेड़ पर पौधे लगा कर गांव को एक नया लुक दिया है। जैविक खेती के क्षेत्र में नायाब काम करनेवाले जादूगर कुशवाहा जल, जमीन व हवा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए जिले व बाहर जाकर सैकड़ों किसानों को प्रशिक्षित करते हैं। गोविंदपुर गांव के किसानों के काम का ही नतीजा है कि 2006 में जिला कृषि विभाग ने गोविंदपुर को ‘जैविक ग्राम घोषित’ किया और एसबीआइ ने उसे गोद लिया।
जैविक खेती के जानकार श्रीकांत कहते हैं कि रासायनिक खाद व कीटनाशक के प्रयोग से मिट्टी की उर्वर शक्ति ही नष्ट नहीं होती, बल्कि सिंचाई में पानी की बर्बादी भी अधिक होती है। फसल के मित्र कीट-पतंगे मर जाते हैं। परागन की प्रक्रिया बाधित होती है, जिससे फसल की उपज में कमी आती है। केंचुए पौधे की जड़ तक ऑक्सीजन पहुंचाता है। बगुला और कौए पटवन के समय कीट-पतंगों को चुन-चुनकर खाते हैं। जिससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व, जीवाणु, ह्यूमस और पीएच बैलेंस बने रहते हैं। जिस फसल में मधुमक्खी का बॉक्स रहता है उसमें परागन की क्रिया से 20 प्रतिशत पैदवार बढ़ जाती है। जबकि रासायनिक खेती से ग्रीन हाउस गैसों के बनने का खतरा बढ़ जाता है। रासायिनक खाद व कीटनाशक के बदले नीम, लहसून, तुलसी आदि के संयोग से बने कीटनाशक मित्रकीट को नुकसान पहुंचाये बिना फसल को पोषण देता है।
कृषि विज्ञान केंद्र, सरैया के मृदा वैज्ञानिक केके सिंह कहते हैं कि पेस्टीसाइड्स और नाइट्रोजन का अधिक प्रयोग करने से जल प्रदूषण भी हो रहा है। नाइट्रोजन का 60 प्रतिशत अंश वायुमंडल में उड़ जाता है। बारिश के दिनों में भूजल तक पेस्टीसाइड्स पहुंच जाता है, जिस कारण 40-50 फीट तक का पानी पीने योग्य नहीं रहता है। इसकी जगह नीम से निर्मित जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाये तो पानी की खपत के साथ-साथ खेतों में लाभदायक कीट बचेंगे और प्रदूषण से बचा जा सकता है। जैविक खेती से 40-50 प्रतिशत पानी की बर्बादी भी रुकती है। ड्रिप इरिगेशन से पानी को बचाया जा सकता है।
आज प्रदेश के ऐसे सैकड़ों किसानों का उदाहरण दिया जा सकता है जो वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन सिर्फ इसलिए नहीं करते हैं कि उनकी आमदनी में बढ़ोतरी हो या उनके खेत व फसल सुरक्षित रहे, बल्कि मिट्टी, हवा, पानी बचाने की चिंता भी उनके इसे काम में साफ-साफ दिखती है। बिना सरकारी सहयोग के।

वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना के जंगल में दोगुने हुए बाघ

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दुनियाभर में बाघों की घटती संख्या को लेकर पर्यावरणप्रेमी चिंतित हैं.  इस बीच बिहार से एक अच्छी खबर है. देश का 18 वां व बिहार का दूसरा टाइगर रिजर्व “वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना के सघन जंगल में गत चार साल में बाघों की संख्या दोगुनी से भी अधिक हो गयी है. चार साल के अंतराल के बाद कैमरा ट्रैप के जरिये हुई गणना में इस वन आश्रण़ी में कुल 23 बाघों के होने का प्रमाण मिला है, जिनमें 17 प्रौढ़ बाघ हैं. शेष शावक हैं. वन अधिकारी कहते हैं कि वन विभाग के सार्थक प्रयासों का एवं बाघों की सुरक्षा व संरक्षण पर हुए खर्च का यह बेहतरीन परिणाम है. वन निदेशक संतोष तिवारी बताते हैं कि वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना के वन क्षेत्र में बाघों को बचाने, उसके संरक्षण के जो प्रयास किये गए, वे सफल हुए हैं. कैमरा ट्रैप में कैद तसवीरों की जांच एक्सपर्ट ने की है. हम इस खबर से उत्साहित हैं. हालांकि, इस वन आश्रणी से गैंडा, स्लौथ, बीयर, पायथन लुप्त हो रहे हैं.

जंगलों में मनुष्य की बढ़ती दखलंदाजी, विकास की होड़ में सिकुड़ते जंगल एवं शिकारियों की करतूतों की वजह से देश के अभ्यारण में बाघों की संख्या कम होती जा रही है. एक अनुमान के मुताबिक बीसवीं सदी के शुरू में देश में 40 हजार से ज्यादा बाघ थे. शुरू के सात दशकों में ही जंगलों के सिमटते जाने व शिकार के कारण 1972  में बाघों की संख्या घटकर 1872 रह गयी. राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार की 28 मार्च 2011 में जारी रिपोर्ट के अनुसार, बाघों की संख्या कम से कम 1571 एवं अधिकतम 1875 है. विश्व के आंकड़ों पर गौर करें तो और दुःख होगा. आज से सौ वर्ष पहले विश्वभर में एक लाख से अधिक बाघ थे. अब यह संख्या सिर्फ 3200 रह गयी है.

बाघों के संरक्षण के उद्देश्य से भारत सरकार ने 1973 में नौ टाइगर रिजर्व क्षेत्र में ‘बाघ बचाओ योजना’ शुरू की. हालांकि, अपेक्षित परिणाम नहीं आया है, लेकिन वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना से आयी खबर हमारे सामने उम्मीद की किरण जरूर जगाती है.

संतोष सारंग