जलाशयों के साथ मखाने की खेती पर संकट

  • संतोष सारंग

बिहार खासकर उार बिहार जल संसाधनों एवं जलाशयों के मामले में धनी रहा है। नेपाल से निकलने वाली दर्जनों नदियां चंपारण, तिरहुत एवं मिथिलांचल से होकर गुजरती हैं, जो पहाड़ियों से गाद लाकर सूबे की मि?ी को उपजाऊ बनाती हैं। गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, नारायणी, कोसी, अधवारा समूह की नदियां, कमला बलान, करेह, बाया समेत दर्ज

नों छोटी-बडी नदियां इस इलाके की एक बडी आबादी के जीवन-मरण एवं धार्मिक आस्था से जुडी हैं। ये नदियां आर्थिक उपाजर्न का भी स्त्रोत हैं। इन नदियों के अलावा परंपरागत जलस्त्रोत यथा-कुएं, तालाब, नहर मन आदि भी जीने के आधार रहे हैं। मत्स्यपालन एवं मखाने की खेती इन्हीं जलाशयों में होती रही है। मगर, हाल के वर्षों में सिकुड़ते-सिमटते जलाशयों, भरे जा रहे तालाबों-कुओं के कारण इस पर आधारित कृषि कार्य एवं कारोबार प्रभावित हुआ है। जलीय जीव-जंतु व पौधे आदि नष्ट हो रहे हैं। पेयजल स्तर व जलवायु परिवर्तन पर कुप्रभाव पड़ रहा है।
मिथिला में एक कहावत मशहूर है। ‘पग-पग पोखर, माछ, मखान, ये हैं मिथिला की पहचान।’ इससे समझा जा सकता है कि इस इलाके में तालाब का कितना महत्व है? सीतामढ़ी, मधुबनी, दरभंगा, सुपौल, सहरसा, कटिहार, किशनगंज आदि जिलों में तालाबों की अच्छी-खासी संख्या होने की वजह से ये जिले मत्स्यपालन व मखाने की खेती के लिए मशहूर रहे हैं। मधुबनी में 10,755 तालाब हैं, जिनमें 4864 सरकारी एवं 5891 निजी तालाब हैं। इनमें से 1308 में मखाने की खेती होती है, जबकि 9447 तालाबों में मत्स्यपालन किया जाता है। पर आज स्थिति यह है कि मधुबनी जिले के आधे से अधिक तालाब रुगA हैं। मधुबनी जिला मत्स्य पदाधिकारी चंद्रभूषण प्रसाद कहते हैं कि तीन साल से औसत से कम बारिश हुई है। इस वजह से 60 फीसदी तालाब या तो सूखे हैं या सूखने के कगार पर हैं। इसका असर मत्स्यपालन एवं मखाने की खेती पर पड़ रहा है। नवानी गांव के किसान पंकज झा ने बताया कि यहां के तालाबो की सेहत बिगड़ रही है। तालाबों को जलमगA रखने के लिए बनाये गये ड्रेनेज सिस्टम ध्वस्त हो गये हैं। जनसंख्या के दबाव व अतिक्रमण के कारण यह सिस्टम अनुपयोगी हो गया है। छोटी नदियों को तालाब से कनेक्ट कर रिचार्ज किया जाता था। अब ये नदियां ही उथली हो गयी है, तो तालाब रिचार्ज कैसे होगा? इसका असर खेती के साथ-साथ जलस्तर पर भी पड़ा है। 10-15 साल पहले नवानी का जलस्तर 80 फुट नीचे था। आज घटकर 110-115 फुट पर आ गया है।
सहरसा के सीमावर्ती धैलार प्रखंड (मधेपुरा) के तीन पंचायतों परमानंदपुर, भटरंधा एवं भानपट्टी में मछुआरों के करीब 350 परिवारों की रोजी-रोटी मखाने की खेती पर ही निर्भर है। यहां 5-7 सरकारी जलकर हैं, जिसकी 2 साल से बंदोबस्ती नहीं की गयी है। निजी तालाब मालिकों का कहना है कि हमारे पास उतने पैसे नहीं हैं कि उड़ाही कराये। मत्स्यपालन में खतरा है। लोग रात में जहर डाल देते हैं। मनरेगा से उड़ाही कराने के लिए सरकारी कार्यालयों का चक्कर लगाना पड़ता है। इस कारण यहां के दर्जनों तालाब सूख गये हैं। बरसात में 3-4 महीने पानी रहता है। इस कारण सैकड़ों परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट उत्पन्न हो गया है। हालांकि, मधेपुरा में मनरेगा योजना के तहत करीब डेढ़ हजार तालाबों की उड़ाही का काम चल रहा है। तालाबों का शहर दरभंगा को ही लीजिए। इस शहर में एक समय 250 तालाब थे। फिलहाल इसकी संख्या घटकर 87 हो गयी है। दरभंगा स्थित ‘मखाना अनुसंधान केंद्र’ के वरीय वैज्ञानिक डॉ लोकेंद्र कहते हैं कि तीन साल से बाढ़ के नहीं आने के कारण जलाशयों में पानी कम हैं। कुछ में तो है ही नहीं। इस कारण जलस्तर में गिरावट आयी है। खासकर मखाने की खेती पर प्रभाव पड़ रहा है। हालांकि, इसका विकल्प ढूंढ़ लेने का दावा मखाना अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक करते हैं। डॉ लोकेंद्र ने बताया कि हमने 2009 में ‘फिल्ड बेज्ड मखाना प्रोडक्ट टेकAोलॉजी’ विकसित किया है। इस तकनीक की मदद से लो लैंड वाली जमीन पर खेतों के चारों ओर एक से डेढ़ फुट ऊंची मेड़ बनाकर उसमें पानी भरकर खेती कर सकते हैं। इस विधि से करीब 50 हेक्टेयर जमीन में मखाने की खेती की जा रही है। सामाजिक कार्यकर्ता अनिल रत्न का कहना है कि इस तकनीक से भले ही मखाने की खेती हो सकती है, लेकिन तालाब का विकल्प खड़ा नहीं हो सकता है। मखाने की परंपरागत खेती वाटर हार्वेस्टिंग आधारित खेती है। यह पारिस्थितिकी तंत्र को भी मजबूत करता है। वाटर रिचार्ज होता रहता है।
जमीन की आसमान छूती कीमतों, बढ़ती जनसंख्या, सरकारी विभागों के उपेक्षापूर्ण रवैये, सामाजिक जागरूकता की कमी एवं अतिक्रमण की वजह से जलाशय ख्त्म हो रहे हैं। जलीय जीव नष्ट हो रहे हैं। पशु-पक्षियों को गरमी में पानी पीने के लिए भटकना पड़ रहा है। खेती के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन पर भी बुरा असर पड़ना स्वाभाविक है। हालांकि मनरेगा के आने के बाद कुछ तालाबों की उड़ाही का काम जरूर हुआ है। इधर, राज्य सरकार ने भी इस दिशा में कुछ कदम उठाया है। सरकार हरेक पंचायत में 5-10 नये तालाब खोदे जाने के लिए किसानों को अनुदान दे रही है। नगर विकास विभाग ने भी घोषणा की है कि मकान में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम यानी सोख्ता लगाने वालों को होल्डिंग टैक्स में 5 प्रतिशत की छुट दी जायेगी।

पर्यावरण को समर्पित दो अनोखी शादियां

पेड-पौधों के बिना प्रकृति व प्राणियों के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। वृक्ष हमें फल-फूल व जीने के लिए ऑक्सीजन ही नहीं देते हैं, बल्कि वायुमंडल को स्वच्छ व प्रकृति को संतुलित भी करते हैं। इसी महा के कारण हमारे पूर्वजों ने पेडों की पूजा करने, सेवा करने की पंरपरा शुरू की थी। धार्मिक आयोजनों, रस्मों-रिवाजों, पर्व-त्योहा

Plantation on the marriage ceremony in Sasaram district, Bihar

रों से जोड़ कर पेड़-पौधों के प्रति आस्था व स्नेह पैदा किया। पीपल के पेड़ की जड़ में जल चढ़ाने, शादी के मौके पर आम व महुआ की शादी करने, तुलसी की पूजा करने, आंवले के पेड़ के नीचे खिचड़ी बना कर खाने जैसी दर्जनों परंपराएं पर्यावरण के हित में चलती आ रही हैं। हाल के दशकों में शहरीकरण, सड़कों के विस्तारीकरण, विकास के विनाशकारी मॉडल, भोगवादी प्रवृति के कारण हम अपनी अनूठी परंपरा को भूलते जा रहे हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई करने में तुले हैं। नतीजा सामने है। धरती तपने लगी है, तो सूरज भी भीषण गरमी पैदा कर रहा है। पारा 48 डिग्री सेल्सियस पार गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण कई संकट पैदा होने लगे हैं। ग्लोबल वार्मिंग ने दुनिया की चिंता बढ़ा दी है। यह चिंता दुनियाभर की सरकारों, गैरसरकारी संस्थाओं की ही नहीं है। धरती के बढ़ते संकट को देखते हुए पर्यावरण को संरक्षित कर

Plantation on the occassion of marriage ceremony in Samastipur, Bihar

ने की जवाबदेही जन-जन की है।

हालांकि, इस दिशा में स्थानीय स्तर पर भी कुछ पहल हो रही है, जो उम्मीदें जगाती हैं। इसी महीने बिहार में हुईं दो अनोखी शादियां चर्चा में रहीं। वर व वधु पक्ष के लोगों ने समाज को रास्ता दिखाया। बेटी के सपने को वनस्पति से जोड़ कर एक नयी परंपरा की शुरुआत की गयी है, जिसका चतुर्दिक स्वागत हो रहा।
छह मई को समस्तीपुर जिले के मोहनपुर प्रखंडन्तर्गत रामचंद्रपुर दशहरा गांव में बहन की शादी को याद्गार बनाने में सुजीत भगत जुटे थे। घर की महिलाएं बेटी की शादी के रस्मों-रिवाज पूरी करने में लगी थीं। गांव के लोग बरात के स्वागत की तैयारी में लगे थे। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी। इसी बीच दोपहर में लोगों का जमघट लगना शुरू हुआ। स्थानीय विधायक राणा गंगेश्वर सिंह, स्वतंत्रता सेनानी ब्रज विलास राय, शिक्षाविद् जनक किशोर कापर, डॉ सुनील कुमार, लडकी के पिता गणोश प्रसाद भगत समेत दर्जनों गणमान्य लोगों व ग्रामीणों की उपस्थिति में पंडित वैद्यनाथ प्रभाकर मंच से उद्घोषणा करते हैं कि शादी के इस पावन बेला में जरूरतमंदों के बीच 101 साड़ियां, 51 धोती एवं 101 पौधे उपहारस्वरूप भेंट किये जायेंगे। गरीबों के बीच साड़ी-धोती बांटी गयी। मंच से फिर घोषणा होती है कि जो इच्छुक व्यक्ति हैं वहीं पौधे लें। जो पौधे को अपनी संतान की तरह देखभाल करेंगे, उन्हें ही पौधे भेंट किये जायेंगे। मंच पर पौधे को संरक्षित करने की शपथ लेकर 87 लोग पौधे लेते हैं। शेष बचे 14 पौधों को लडकी पक्ष के लोगों ने घर के आसपास ही रोपे। ‘बेटी एवं पर्यावरण सुरक्षा हेतु पहल’ विषय पर करीब तीन घंटे तक गोष्ठी हुई। इसके बाद सराती पक्ष के लोग बराती के स्वागत में लग गये। रातभर शादी की रस्मों के बाद सुबह विदाई से पूर्व दूल्हा अमीर कुमार राय एवं दुल्हन पूनम कुमारी ने मिल कर एक पौधा रोप कर पर्यावरण को संरक्षित करने का संकल्प लिया। इस शादी में प्लास्टिक के सामान का प्रयोग पूर्णत: वजिर्त था। प्लास्टिक की जगह स्टील के 550 गिलास एवं पो के पाल का प्रयोग किया गया। सोनपुर निवासी दूल्हे के पिता गुलाबचंद राय समेत करीब 200 बरातियों ने इस पहल की सराहना की। गुजरात में बीमा निगम कर्मी के रूप में कार्यरत दूल्हा अमीर ने कहा कि ससुरालवालों के इस पुनीत काम की वजह से मेरी शादी याद्गार बन गयी। लड़की के भाई सुजीत बताते हैं कि मेरी इस योजना को परिवारवालों ने समर्थन किया, लेकिन गांव के कुछ लोगों को शुरू में यह कुछ अजीब लगा। शादी के बाद बधाइयां मिल रही हैं। वे कहते हैं कि जब मैं चौर में काम करने जाता था, तो उन गरीब-मजदूर महिलाओं को देख कर द्रवित हो जाता था जो छोटे-छोटे बच्चे लेकर काम करने खेतों में आती थीं। चौर में बड़े पेड़-पौधे नहीं होने के कारण जेठ की तपती धूप में बच्चे बिलबिलाते रहते थे और उसकी मां काम करती रहती थीं। तभी मैंने ठान लिया कि जीवन में पर्यावरण बचाने के लिए कुछ नया करुंगा।
स्थानीय विधायक राणा गंगेश्वर ंिसंह कहते हैं कि मैं इस शादी समारोह में मुख्य अतिथि था। सुजीत जी ने पुण्य का काम किया है। हम इस पहल को आगे बढ़ाने में मदद करेंगे। हम दूसरे लोगों से भी अपील करते हैं कि वे अपनी बेटी की शादी में भी पौधरोपण कर पर्यावरण बचाने के लिए आगे आयें।
इस शादी के दो हफ्ते बाद यह पहल आगे बढ़ती है। कुछ इसी तरह की शादी रोहतास जिले में भी होती है। शिवसागर प्रखंड का मोड़सराय गांव बनता है ‘इको फ्रेंडली शादी’ का गवाह। शिक्षाविद् जगदीश नारायण सिंह के पु़त्र राजीव रंजन एवं अकोढ़ीगोला गांव के विष्णुपद सिंह की लड़की अंकीता की शादी भी इलाके में चर्चा का विषय बन जाती है। 18 मई को तिलकोत्सव में मंत्रोच्चारण के बीच लड़के ने एक पौधा लगाया। 20 को बरात जाने को सजी कार में एक पौधा लेकर दूल्हा ससुराल पहुंचा। जयमाल के बाद वर-वधु ने पौधे लगाये। विदाई के समय वधु पक्ष की महिलाओं ने लड़की के खोईंछा में मोहिनी का एक पौधा दिया, जिसे 22 मई को बहुभोज के दिन नवदंपती ने लगाया। इस शादी में भी प्लास्टिक के बैग, गिलास व पाल का प्रयोग न के बराबर किया गया। आतिशबाजी नहीं हुई। लड़के के बड़े भाई डॉ राजेश नारायण सिंह के इस फैसले पर शुरू में कुछ लोगों ने हंसी उड़ायी, लेकिन बाद में लोगों का सहयोग मिलने लगा। पेशे से शिक्षक डॉ राजेश कहते हैं कि यदि पौधरोपण को मांगलिक कार्य से जोड़ दिया जाये, तो जैव विविधता में मजबूती, रिश्तों में प्रगाढ़ता एवं समाज में जागरूकता आयेगी। 2012 में अहमदाबाद में ‘एशिया पैसेफिक कुंजा कांफ्रेंस’ एवं हैदराबाद में ‘कॉप 11’ में हिस्सा लेकर लौटने के बाद डॉ राजेश ने तय किया था कि पर्यावरण संरक्षण के लिए लीक से हट कर कुछ करना है। वे इस काम को पहले अपने घर से ही शुरू करना चाहते थे। आगे उनकी योजना स्कूली छात्रों को लेकर इस अभियान को आगे बढ़ाने की है। स्थानीय विधायक जवाहर प्रसाद एवं जिला परिषद अध्यक्षा प्रमीला सिंह भी इस शादी की गवाह बनीं।

संतोष सारंग

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