नदियों की मौत पर शोकगीत भी नहीं

  • संतोष सारंग

मानव सभ्यता का विकास नदियों के आसपास ही हुई है। नदियां हमारे लिए जीवनदायिनी स्वरूपा हैं। मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों, वनस्पतियों एवं इको सिस्टम के लिए भी जरूरी हैं। इसलिए तो नदियां प्राचीन काल से इतनी पूजनीय हैं। खासकर गंगा को मां का दर्जा देकर हम पूजते आ रहे हैं। पर, आज स्थिति उलट है। अविरल बहनेवाली नदियां रोकी जा रही हैं। नदी नाले में तब्दील होती जा रही है। निर्मल जल काला पानी में बदलता जा रहा है। नदियों की तलहटी में अपना संसार बसानेवाले जीव-जंतु भी मरते-मिटते जा रहे हैं। कहीं औद्योगिक कचरे से नदियों की सेहत बिगड़ रहा है, तो कहीं धार्मिक आस्था व मानवीय करतूतों से नदी मरती-मिटती जा रही हैं।
उार बिहार में आठ प्रमुख नदियां बहती हैं। ये हैं गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, कोसी, कमला बलान, घाघरा, महानंदा, अधवारा समूह की नदियां। इन सभी नदियों का जल बिहार के बीचो-बीच से गुजरने वाली गंगा में समाहित हो जाती हैं। बूढ़ी गंडक को छोड़कर शेष सातों नदियां नेपाल से निकलती हैं। बूढ़ी गंडक का उद्गम पश्चिम चंपारण का एक चौर है। उार बिहार में इन बड़ी नदियों के अलावा दर्जनों छोटी-बड़ी नदियां बहती हैं, जो इस मैदानी इलाके की आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक समृद्घि में सहायक रही हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश गत कई दशकों से ये नदियां बरसाती बन कर रह गयी हैं अथवा तिल-तिल कर मिटती जा रही हैं।
घाघरा नदी वैशाली जिले के लालगंज, भगवानपुर, हाजीपुर, देसरी, सहदेई प्रखंडों से गुजरती हुईं महनार प्रखंड में बाया नदी में मिलती है। आगे जाकर यह गंगा में मिल जाती है। यह नदी बिहार में कई जगह लुप्त दिखती है। पहले यह वैशाली जिले में सिंचाई व्यवस्था की रीढ़ थी। गंडक नदी से आवश्यक जल का वितरण होता था, जो इसके बहाव के पूरे क्षेत्र में हजारों एकड़ जमीन को सींचती थी। चंपारण, मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर जिलों की जमीन की प्यास बुझाने वाली बाया नदी का हाल भी बुरा है। दशकों से उड़ाही न होने के कारण इसकी पेटी में गाद जमा हो गया है। गरमी में भी पानी सूख जाता है। किसानों के लिए वरदान रही बाया को पुनर्जीवित  करने के लिए वाया डैमेज योजना बनायी गयी, पर यह ठंडे बस्ते में पड़ी है। मुजफ्फरपुर जिले में कभी बलखाने वाली छोटी-छोटी नदियां माही, कदाने, नासी भी दम तोड़ चुकी हैं। कहीं-कहीं गड्ढे के रूप में नदी का निशान जरूर मिल जाता है।
चंपारण में भपसा, सोनभद्र, तमसा, सिकहरना, मसान, पंडई, ढोंगही, हरबोरा जैसी पहाड़ी नदियां बरसाती बनती जा रही हैं। प्रदूषण का बोझ ढोने को विवश हैं। सिल्टेशन की वजह से ये छिछला होती जा रही हैं। इनमें से कई नदियां खनन विभाग की उदासीनता व बालू माफियाओं के काले धंधे की शिकार हो रही हैं। इस इलाके में नदियों से अवैध ढंग से बालू की बेरोकटोक निकासी की जा रही है। सुतलाबे, सुमौसी, रघवा नदी भी अपनी पुरानी धारा के लिए तरस रही हैं। पूर्वी चंपारण के कल्याणपुर प्रखंड स्थित राजपुर मेला के पास सुमौसी नदी की तलहटी को मि?ी से घेर कर लोगों ने तालाब बना दिया है, जिसमें वे अस्थायी रूप से मत्स्यपालन करते हैं। केसरिया प्रखंड के फूलतकिया पुल के समीप यह नदी अतिक्रमित कर ली गयी है। झांझा नदी दिलावरपुर के पास पूरी तरह संकीर्ण हो गयी है। सीतामढ़ी में लखनदेई, लालबकेया, झीम नदी अब अविरल व निर्मल नहीं बहती हैं। लखनदेई (लक्ष्मणा) की धमनियों में सीतामढ़ी शहर का कचरा बह रहा है। इस नदी के किनारे जमीन अतिक्रमित कर लोग घर बना रहे हैं। रीगा चीनी मिल का कचरा मनुषमारा नदी को जहरीला बना रहा है। बीच-बीच में मनुषमारा, लखनदेई की उड़ाही के लिए आंदोलन भी होते रहते हैं, पर कुछ हुआ नहीं। बागमती के कार्यपालक अभियंता भीमशंकर राय ने बताया कि भारत-नेपाल सीमा के भारतीय इलाके में करीब 8 किलोमीटर में स्थानीय लोगों ने अतिक्रमण कर लखनदेई की पेट में घर बना लिया, जिस कारण उसकी धारा अवरूद्घ हो गयी है। ऐसे में नदी की उड़ाही करना मुश्किल हो रहा है। नदी के किनारे के गांवों में सिंचाई की समस्या उत्पन्न हो गयी है। जमुरा-झीम नदी की धारा मोड़ कर लखनदेई में मिलाने की योजना पर काम हो रहा है।
करहा, धौंस, जमुनी, बिग्छी आदि नदियां मिथिलांचल के किसानों, पशुपालकों के लिए अब उपयोगी नहीं रही। बिग्छी व जमुनी नेपाल स्थित सिगरेट व कागज की फैक्ट्रियों का रासायनिक अवशेष लेकर आती है और धौंस में मिला देती हैं। ये नदियां कालापानी की सजा भुगत रही हैं। इस नदी में स्नान करने का मतलब है चर्मरोग से ग्रसित हो जाना। कुछ साल पहले केंद्रीय जल आयोग की टीम आयी थी। टीम ने धौंस के पानी को अनुपयोगी बताया था। गत दो-तीन साल में अधवारा समूह की कई नदियों की धारा मर चुकी है। दरभंगा जिले में बहनेवाली करेह, बूढ़नद नदियों ने भी अपना प्राकृतिक प्रवाह खो दिया है। नदी विशेषज्ञ रंजीव कहते हैं कि विकास के अवैज्ञानिक मॉडल व जलवायु परिवर्तन के कारण नदियां मर रही हैं। हाल के दिनों में उार बिहार की नदियों में पानी की आवक कम हुई है। इसका कारण है कि गत एक दशक से हिमालय क्षेत्र में बारिश कम हुई है। बूढ़ी गंडक व बागमती नदी के पानी से बना प्रमुख प्राकृतिक झील कांवर झील भी सूख गया है। तालाब जैसा दिखता है। कोसी की सहायक नदियां तिलयुगा पर बांध बनाया गया है। जगह-जगह स्लूइस गेट लगाया गया। इस सिल्ट लोडेड नदी में स्लूइस गेट लगाने से उसकी धारा बदल गयी है। हमें नदियों के विज्ञान को समझना होगा। तभी विकास की रूपरेखा तय करनी होगी।
बागमती की बाई ओर सिपरी नदी कहलानेवाली धारा ‘फलकनी’ तथा ‘हिरम्मा’ गांवों के पास से अलग होकर दाहिनी धारा के समानांतर चलती हुई पूरे मुजफ्फरपुर जिले की पूर्वी सीमा तक बहती थी और दाहिने प्रवाह के साथ जिले की सीमा पर ‘हठा’ नामक गांव के पास मिलती थी, पर यह ‘सिपरी’ धारा भी अब प्राय: लुप्त हो चुकी है। 1970 में बागमती को इस धारा से बहाने का प्रयास किया गया, लेकिन सफलता नहीं मिली। सुलतानुपर भीम गांव के पास ही बागमती की एक प्राचीन ‘कोला’ नदी नामक उपधारा ‘सिपरी’ से मिलती थी। कोला नदी भी प्राय: लुप्त हो चुकी है।
उार बिहार की नदियों में सरयू के बाद पूर्व की ओर दूसरी बड़ी नदी गंडकी है, जिसे नारायणी भी कहते हैं। नेपाल के तराई क्षेत्र में इसे शालीग्राम भी कहा जाता है। यह नदी भी कहीं सिकुड़ गयी है, तो कहीं दूर चली गयी है। नारायणी के किनारे बसे गांव हुस्सेपुर परनी छपरा के युवा किसान पंकज सिंह बताते हैं कि पहले करीब डेढ़ किलामीटर चौड़ाई में नदी का पानी बहता था। अब तो यह नाले की तरह बह रही है। गाद भर गया है। कटाव के कारण हमारे घर के सामने यह नदी मुजफ्फरपुर से रूठ कर छपरा से बहने लगी है।
दरभंगा में एक संगोष्ठी में भाग लेने आये जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने कहा कि सन् 1800 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी के इंजीनियरों ने बिहार की नदियों के साथ अत्याचार प्रारंभ कर दिया था। इस इलाके के इको सिस्टम को समङो बिना ही पुल, पुलियों, कल्वटरें का निर्माण शुरू कर दिया गया। रेल की पटरियां बिछाने के लिए गलत तरीके से मि?ी की कटाई की गयी। इस कारण नदियों का नैसर्गिक प्रवाह प्रभावित हो गया। इस इलाके में पानी का कंटेंट तेजी से बदल रहा है, जो लोगों को बीमार भी बना रहा है। उन्होंने कहा कि पूरा इको सिस्टम जल पर आधारित होती है और एक समृद्घ इको सिस्टम में ही समृद्घ इकोनॉमी विकसित हो सकती है। जल संरक्षण की नीति बनानेवाले केंद्र व राज्य सरकार के अधिकारी यूपी व उारांचल की नदियों के हिसाब से नीतियां बनाते हैं, जो बिहार में सफल नहीं हो पाते हैं। जल संसाधन विभाग की कवायद भी बांध, बाढ़ व राहत कार्यक्रम तक सिमटी रहती हैं। नदियों के विज्ञान, उसकी सेहत व उसके पानी में पलने वाले जीव-जंतुओं के जीवन की चिंता न सरकार को है और न विभाग को। लिहाजा, जरूरत है कि लोग जीवनदायिनी नदियों को मरने से बचायें।

प्यासी धरती को तरसा रहा मानसून

संतोष सारंग
— बिहार में औसत से कम हुर्इ बारिश, सूखे की आशंका बढी
— धान की खेती चौपट
— जलवायु परिवर्तन का मौसम पर असर

बाढ़ व सुखाड़ बिहार की नियति बन चुकी है। कोसी, बागमती एवं गंगा के कुछ मैदानी इलाकों में बाढ़ किसानों के लिए त्रासदी बनी हुर्इ है, तो राज्य के शेष हिस्से सूखे की चपेट में हैं। प्यासी धरती को मानसून तरसा रहा है। आषाढ़ का एक-एक दिन बारिश की बूंदों के लिए तरसता रहा। अब सावन का महीना चल रहा है, लेकिन मानसून की बेरूखी बरकरार है। इसके चलते खरीफ फसल खासकर धान की खेती चौपट हो रही है। इधर, खेतों में दरार फट रही हैं, तो इधर किसानों का कलेजा फट रहा है। जिन किसानों ने कर्ज लेकर धान की रोपनी की थी, उनके पास अपनी किस्मत पर रोने के अलावा और कोर्इ चारा नहीं है। आसमान की ओर टकटकी लगाये हजारों किसानों के खेत खाली पड़े हैं। धान की रोपनी का समय भी बीत गया।
बदलते मौसम का मिजाज देखिये कि रेगिस्तानी इलाके (ड्रार्इ एरिया) में खूब बारिश हो रही है और मेधों के प्रदेश मेघालय के चेरापूंजी में औसत से कम बारिश हो रही है। मौसम वैज्ञानिक मौसम चक्र में बदलाव का कारण जलवायु परिवर्तन को मानते हैं। पूसा कृषि विश्वविधालय के वरीय वैज्ञानिक डा आइबी पांडे का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं बाढ़, तो कहीं सुखाड़ की सिथति पैदा हो रही है। मुंबर्इ, गुजरात, उत्तराखंड एवं ड्राइ एरिया में भारी वर्षा हो रही है।
यह जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि बिहार के किसान सूखे की मार झेलने को विवश हैं। प्रदेश में अबतक 469.4 एमएम बारिश होनी चाहिए थी, पर 349.6 एमएम ही हुर्इ है। यानी 26 फीसदी कम बारिश दर्ज की गयी है। राज्य के सिर्फ 8 जिले सीवान, पूर्वी चंपारण, मधुबनी, मधेपुरा, अरवल, कटिहार, बेगूसराय व पूर्णिया में सामान्य बारिश हुर्इ है। सीतामढ़ी, वैशाली, गया, नवादा, औरंगाबाद व लखीसराय जिलों की सिथति काफी खराब है। इन जिलों में 60 से 100 फीसदी कम बारिश हुर्इ है। आंकड़ों पर गौर करें तो 23 जिलों में 50 फीसदी से कम बारिश हुर्इ है। इसके चलते 43 फीसदी धान की रोपनी ही अबतक हो पायी है। राज्य के 10 जिले ऐसे हैं, जहां 10 फीसदी से भी कम धान की रोपनी हो सकी है। ये जिले हैं-जमुर्इ, नवादा, नालंदा, शेखपुरा, गया, जहानाबाद, लखीसराय, भोजपुर, बांका, औरंगाबाद। इस वर्ष राज्य में 34 लाख हेक्टेयर भूमि में धान की रोपनी का एवं 91 लाख टन धान उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन अब नहीं लगता है कि यह लक्ष्य प्राप्त होगा।
मौसम विज्ञान केंद्र, पटना के निदेशक डा एके सेन बताते हैं कि राजस्थान से बे आफ बंगाल की ओर चलनेवाली मानसून की टर्फ लाइन बिहार के ऊपर काफी कमजोर हो गयी। इसी वजह से बिहार में औसत से कम बारिश हुर्इ। इसके कमजोर होने की मुख्य वजह प्रदेश के ऊपर एयर सिस्टम का कमजोर होना है।
बिहार की अर्थव्यवस्थ खेती पर निर्भर है। यहां की लगभग 80 फीसदी आबादी की रोजी-रोटी खेती व पशुपालन से चलती है। सिंचार्इ व्यवस्था के कमजोर होने के कारण यहां कृषि पैदावार मानसून आधारित है। अधिकांश जिलों के स्टेट बोरिंग ठप हैं। नहरों की सिथति भी अच्छी नहीं है। कर्इ नदियां बरसाती बन गयी हैं। अधिकांश कुएं मिट गये हैं। ऐसे में किसानों के पास पटवन के लिए मानसून के अलावा निजी बोरिंग ही विकल्प है, जो खर्चीला है। डीजल व कृषि यंत्रों की बढ़ती कीमतें किसानों की कमर तोड़ रहे हैं। लघु व सीमांत किसानों के पास अपना पंपिंग सेट नहीं होता हैै। वे प्रति घंटे के हिसाब से पटवन का पैसा चुकाते हैं। उन्हें कर्ज लेकर खेती करनी होती है। ऐसे में मौसम की मार उन्हें और कर्जदार बना देती है। वैशाली जिले के सलहा के किसान शिवचंद्र सिंह कहते हैं कि धान की खेती चौपट हो गयी। कर्ज लेकर बिचड़ा गिराये थे। आधे खेत में भी रोपनी नहीं हो पायी है। डीजल अनुदान से भी कितना लाभ होगा।
मौसम चक्र में हो रहे बदलाव को देखते हुए किसानों को फसल चक्र में भी बदलाव करने की जरूरत पड़ेगी। बिहार की मुख्य फसल धान, गेहूं, मक्का, सबिजयां हैं, जिसे पर्याप्त पानी की आवश्यकता होती हैं। किसानों को ऐसे फसलों का चुनाव करना होगा, जो कम पानी में भी हो अच्छी फसल हो। हालांकि, राज्य सरकार ने सूखे की आशंका को देखते हुए वैकलिपक फसल योजना तैयार की है। सरकार प्रदेश को सूखाग्रस्त घोषित करने की भी तैयारी कर रही है। कृषि उत्पादन आयुक्त एके चौहान बताते हैं कि योजना तैयार कर ली गयी है। किसानों को मक्का, उड़द, कुल्थी, अरहर, तोरिया, कुरथी व मड़ुआ का बीज मुफ्त में दिया जायेगा। शिविर लगा कर किसानों के बीच उपलब्ध कराया जायेगा। लेकिन कृषि विभागों से लेकर पंचायतों में घुन की तरह घुसे रिश्वतखोरी व बिचौलियागिरी के कारण सरकार की मंशा कितनी पूरी होगी, बताने की जरूरत नहीं है।
सूखे से निबटने के लिए राज्य सरकार ने उच्चस्तरीय बैठक कर गांवों में आठ घंटे बिजली देने का व सरकारी नलकूपों को चालू करने का निर्देश दिया है, पर यह इतना आसान नहीं है। राज्य के करीब 70 फीसदी राजकीय नलकूप खराब हैं। ऐसी सिथति में धान की रोपनी तक इसे ठीक कर पाना और पर्याप्त बिजली आपूर्ति के बावजूद खेतों तक पानी पहुंचा पाना असंभव है। राज्य सरकार ने धान व मक्के के लिए डीजल अनुदान देने की घोषणा की है, जो स्वागतयोग्य है, लेकिन इसका लाभ कितने किसान उठा पायेंगे। अनुदान राशि में लूटखसोट होगा और वास्तविक किसान मुंह देखते रह जायेंगे। राशि पाने से लेकर प्रखंड कार्यालय व शिविर तक दौड़ लगाते उन्हें एक और पीड़ा सहनी पड़ेगी।
यह पहली बार नहीं है। इससे पहले भी बिहार सूखे की मार झेल चुका है। ऐसा नहीं है कि प्रदेश के पास पानी की भी कमी है। बाढ़ व बेमौसम बारिश के पानी की उपलब्धता को सहेजना सीख लें तो ऐसे संकट का सामना किया जा सकता है। जल प्रबंधन की दीर्घकालिक योजना पर सरकार को काम करना चाहिए। इनसानी करतूतों की वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन का नतीजा कर्इ रूपों में हमारे सामने आयेगा। इसका सबसे बुरा प्रभाव खेती पर ही पड़ेगा। सो, हमें अभी से सचेत हो जाना चाहिए।
…………………………………………………………………….

बिहार में तटबंध का खेल

  • संतोष सारंग

बिहार की एक बड़ी आबादी अभी से बाढ़ को लेकर सशंकित है। मात्र एक महीना शेष रह गया है, जब बाढ़ दस्तक देना शुरू करेगा। यहां के लोगों के लिए हर साल बागमती, कोसी, कमला बलान, गंडक, बूढ़ी गंडक, घाघरा, महानंदा, अधवारा समूह की नदियां तबाही लाती है। कुल मिलाकर राज्य के 38 में से 28 जिले बाढ़ से प्रभावित होते हैं। अकेली कोसी सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, पूर्णिया, अररिया, खगड़िया, कटिहार, मधुबनी समेत 10 जिलों को अपनी चपेट में लेकर करीब 4 महीने तक तांडव करती हैं। राज्य में गंगा के उारी हिस्से का करीब 70 फीसदी हिस्से को पानी में डूबना पड़ता है। बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए सरकार कई उपाय करती हैं, फिर भी बाढ़ का पानी अपना रौद्र रूप दिखाती रही है। तटबंध भी बांढ़ को नियंत्रित करने में कारगर सिद्घ नहीं हो पायी है। कोसी तटबंध 1963 से लेकर अबतक 2008 तक दर्जनों बार टूट चुकी हैं। इस अवधि में हजारों परिवार उजड़ गये। लाखों लोग तबाह हुए। जानमाल की क्षति हुई।
राज्य को बाढ़ की विभीषिका से बचाने के लिए सरकार तटबंधों का निर्माण एवं मरम्मत का काम कराती रही है। हाल की स्थ्िित यह है कि सूबे में तटबंध निर्माण का काम धीमा चल रहा है। जल संसाधन विभाग द्वारा चयनित 407 योजनाओं में अब तक 228 योजनाओं का काम आधा भी पूरा नहीं हो सका है। बाढ़ से पूर्व इन योजनाओं का काम पूरा होना संभव नहीं दिखता। इस वर्ष कुल 407 योजनाओं का चयन किया गया, जिस पर 985 करोड़ रुपये खर्च होना था। इन योजनाओं पर एक जनवरी से काम शुरू हुआ, लेकिन सुस्त चाल की वजह से योजनाओं पर मंथर गति से काम चल रहा है। पूर्णिया में 73, गया में 17, सीवान में 34, समस्तीपुर में 87, मुजफ्फरपुर में 33, वाल्मीकिनगर में 48, डेहरी में 19, वीरपुर में 66, भागलपुर में 12 व पटना चीफ इंजीनियर के अधीन 18 योजनाओं पर काम चल रहा है। 31 मई तक योजनाओं को पूरा करना है। 15 जून से बाढ़ की अवधि शुरू हो जाती है। तय समय में यदि काम पूरा नहीं हुआ, तो बरसात में काम करना मुश्किल होगा। ऐसी स्थिति में बाढ़ग्रस्त 28 जिलों के लिए कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।
बिहार में डैम के नाम पर सालाना करोड़ों रुपये सरकारी खजाने से खर्च की जाती है, फिर भी बाढ़ से निजात नहीं मिल रही है। तटबंध मरम्मत का खेल लोग समझ नहीं पा रहे हैं। गत 22 वर्षों में 2752़63 करोड़ रुपये खर्च किये गये और इसी अवधि में तटबंध टूटने की 268 घटनाएं हुईं। 1987 से लेकर 2011 तक राज्य की नदियों पर बने तटबंध 371 बार टूट चुके हैं। इसके बावजूट सूबे की सरकार बाढ़ से स्थायी समाधान निकालने के बजाय तटबंधों की मरम्मत पर ही जोर देती रही है। बिहार में अभी 3649 किमी तटबंध है। अगले पांच साल में 1676 किलोमीटर और तटबंध बनाने की योजना है। विभाग का दावा है कि इससे लगभग 26़86 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षित रखा जायेगा।
पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश कहते हैं कि मुजफ्फरपुर जिले के औराई, कटरा, गायघाट एवं दरभंगा के करीब 120 गांव बागमती पर बांध बनने के कारण डूब जायेंगे। बागमती नदी के जिन-जिन हिस्सों में डैम बन गये, वहां के लोग उजड़ गये। पुनर्वास का इंतजाम नहीं हुआ। जमीन के बदले जमीन भी नहीं मिली। बांध के अंदर के खेत बालू से भर गये। जहरीले घास, गुड़हन आदि उग गये। बनैया सूअर, नीलगाय आदि का वास हो गया, जो फसलों को चट कर जाते हैं। तटबंध के बाहर भी जलजमाव होने लगा। मनुषमारा, लखनदेई आदि सहायक नदियों के पानी का निकास बंद हो जाने के कारण जलजमाव की समस्या उत्पन्न हो गयी है। बागमती क्षेत्र के शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, दरभंगा, सुपौल, खगड़िया आदि जिलों के सैकड़ों गांव काला पानी में तब्दील होते जा रहे हैं। पहले हर साल बागमती 12 किलोमीटर की चौड़ाई में उपजाऊ मिट्टी बिछा देती थी। लोग खुशहाल थे, लेकिन जबसे इस नदी को तटबंधों के माध्यम से तीन किलोमीटर के दायरे में कैद करने का सिलसिला शुरू ंहुआ, राज्य से पलायन तेज हो गया। इतना के बाद भी तटबंध निर्माण का काम जारी है। बागमती इलाके के सैकड़ों लोग बांध का विरोध करते हुए आंदोलन चला रहे हैं। सीतामढ़ी में संघर्ष यात्र के नेतृत्व में तो मुजफ्फरपुर में बागमती बचाओ अभ्यिान, बिहार शोध संवाद के नेतृत्व में आंदोलन चल रहे हैं। आंदोलनकारी बांध बनाने का विरोध कर रहे हैं।
नदी व बाढ़ विशेषज्ञ डॉ दिनेश कुमार मिश्र का तर्क है कि तटबंध बांध कर नदियों को नियंत्रित करने के बदले सरकार इसके पानी को निर्बाध रूप से निकासी की व्यवस्था करें। तटबंध पानी की निकासी को प्रभावित करता है। सीतामढ़ी जिले में बागमती पर सबसे पहला तटबंध बनने से मसहा आलम गांव प्रभावित हुआ था। उस गांव के 400 परिवारों को अबतक पुनर्वास का लाभ नहीं मिला है। रून्नीसैदपुर से शिवनगर तक के 1600 परिवार पुनर्वास के लाभ के लिए भटक रहे हैं। दोनों तटबंधों के बीच गाद भरने की भी एक बड़ी समस्या है। रक्सिया में तटबंध के बीच एक 16 फीट ऊंचा टीला था, जो अब यह बालू में दबकर मात्र तीन फीट बचा है। उधर, झंझारपुर के इलाके में कमला बलान का स्लुइस गेट मिट्टी से भर गया है। बागमती व कमला में सिलटेशन की दर अधिक है। इसकी वजह से बागमती बार-बार अपनी धारा बदलती है। इसे बांध कर कभी बाढ़ को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं।
बांध समर्थक लॉबी के अपने तर्क हैं। सरकार, इंजीनियर, ठेकेदार बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबंध को ही समाधान मानते हैं। जबकि बांध विरोधियों के अपने तर्क हैं। बांध विरोधी लॉबी का दावा है कि इंजीनियर जो आंकड़े पेश करते हैं, वे झूठे होते हैं।
मुजफ्फरपुर जिले के गायघाट प्रखंड के बंसघा गांव के रौदी पंडित अपनी पीड़ा बयां करते हुए कहते हैं कि तटबंध बनने से तटबंध के बाहर की जमीन की दर दो लाख प्रति कट्ठा हो गया है, जबकि भीतर की जमीन 15 हजार रुपये प्रति कट्ठा हो गया है। गंगिया, कटरा के रंजन कुमार सिंह कहते हैं कि अभी हमलोग जमींदार हैं। तटबंध बनने से हमलोग कंगाल हो जायेंगे। तटबंध के भीतर मेरा 10 एकड़ जमीन आ जायेगा। हम बर्बाद हो जायेंगे।

बिगड़ते पर्यावरण से प्रभावित होता बिहार

environment

संतोष सारंग

  • कोयल की कूक सुनने को तरस रहे अब कान

बिहार में शीशम के पेड़ अब बहुत कम दिखार्इ पड़ते हैं। मृत जानवरों को खाकर वातावरण को शुद्ध करनेवाले गिद्ध भी आकाश में मंडराते नहीं दिखते। वैशाली के बरैला झील, दरभंगा के कुशेश्वरस्थान झील व बेगूसराय के कांवर झील में प्रवासी प्रक्षियों का आना भी कम हो गया है। कठखोदी, बगेरी, लुक्खी की प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है। कोयल की कूक व घरों के मुंडेर पर कौओं की कर्कश आवाज भी मद्धिम पड़ गयी है। फसल में पटवन के समय जमीन से निकलने वाला घुरघुरा और उसे अपना निवाला बनाने वाला बगुला भी नजर से ओझल होता जा रहा है। भेंगरिया, तेतारी जैसे उपयोगी घास खोजने से नहीं मिलते हैं। पेड़ों पर पहले जैसे घोंसले नहीं देख बच्चे उदास हो जाते हैं। यह भयावह तस्वीर है, उस बिहार प्रांत की जिसकी लाइफ लाइन है खेती व पशुपालन। कहने की गरज कि पारिसिथतिकी तंत्र व फसल चक्र को नियंत्रित व संरक्षित करने वाले ये सारे कारक नष्ट क्यों हो रहे हैं? ये सवाल क्या एक-एक व्यकित के मन में कौंध रहा है? शायद नहीं।

दुनिया की आबाजी जिस रफ्तार से बढ़ रही है, प्राकृतिक संसाधनों, यथा-जल, जंगल, जमीन, ऊर्जा आदि का दोहन भी उसी गति से हो रहा है। जंगल की अंधाधुंध कटार्इ, पानी की बर्बादी, भूगर्म जल का सिंचार्इ व कल-कारखानों के लिए दोहन, हरित क्रांति के लिए रसायन के प्रयोग से हमारे सामने कर्इ पर्यावरणीय संकट पैदा किया है। पंजाब व हरियाणा का हश्र हमने देख लिया है। रसायन के प्रयोग से सिर्फ मिêी की उर्वरा शकित ही नष्ट नहीं होती, बलिक जलीय जीव-जंतु, मृदा में रहनेवाले सूक्ष्म जीव, कीट-पतंग, पशु-पक्षी के जीवन भी संकट में आ जाता है। मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि पूरी दुनिया में हो रहे जलवायु परिवर्तन के चलते पृथ्वी गर्म हो रही है। इससे आनेवाले दिनों में कृषि क्षेत्र को भारी संकट का सामना करना पड़ेगा। पैदावार में गिरावट आयेगी। धान, मक्का व गेहूं जैसी फसलों में दाने नहीं आएंगे। खाध संकट बढ़ेगा। तब सरकार द्वारा खाध सुरक्षा के लिए उठाए गये कदम नाकाफी होंगे। समय पर मानसूनी वर्षा नहीं होगी, जिससे वन क्षेत्र भी सिकुड़ेगा। पेयजल व सिंचार्इ के लिए जल संकट उत्पन्न होगा। पर्यावरणविद अनिल प्रकाश कहते हैं कि पालिथीन से धरती पट रही है। ये पालिथीन व प्लासिटक की चीजें धरती को नुकसान पहुंचा रहे हैं। पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान रसायन आधारित कृषि से हो रहा है। अधिक मात्रा में रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के प्रयोग से परागमन की प्रक्रिया भी प्रभावित हो रही है। मधुमकिखयां, तितलियां मर रही हैं। मेढ़क, बगुले, कौए आदि प्राणी विलुप्त हो रहे हैं। मेढ़क का जितना वजन होता है, उतना फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीट-पतंगों को वे खा जाते हैं। इससे मिêी के सूक्ष्म पोषक तत्व, जीवाणु, हयूमस, पीएच नियंत्रित रहते हैं। जहां मधुमक्खी के बक्शे रखे जाते हैं, उसके आसपास के खेतों में लगी फसलों में परागमन की क्रिया से 20 फीसदी पैदावार बढ़ जाती है, जबकि रासायनिक खेती से ग्रीन हाऊस गैस बनती है, जो वायुमंडल को गर्म करने में सहायक होती हैं।
बिहार में 60 के दशक में फर्टिलाइजर की प्रति हेक्टेयर खपत 4 किलोग्राम थी, जो बढ़कर 1975-76 में प्रति हेक्टेयर 19 किलोग्राम हो गयी। 2010-11 में हो यह आंकड़ा 200 किलोग्राम तक पहुंच गया है। इस कारण मिêी में सूक्ष्म पोषक तत्व, यथा-जिंक, बोरोन, सल्फर आदि की कमी हो गयी। स्वाभाविक है कि इसका असर फसलों की पैदावार पर पड़ेगा और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचेगा।
जलवायु परिवर्तन से सबसे पहले खेती ही चौपट होती है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में हो रहे बदलाव, बाढ़, सुखाड़, बेमौसम बारिश, प्राकृतिक आपदा बीच-बीच में हमें चेतावनी दे रहा है। बिहार में मर्इ में ही दो दिन ऐसी बारिश हुर्इ, जैसे मानसून की बारिश हो। गत-तीन साल में सूखे की सिथति पैदा हो गयी है। 2007-08 में बाढ़ एवं 2009-10 की सूखे से हजारों किसानों की खेती चौपट हो गयी थी। 2009 में आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में आर्इ बाढ़ की विभीषिका देख कर रेडक्रास रेड क्रीसेंट क्लाइमेट सेंटर के प्रमुख मेडेलिन हेल्मर ने कहा था कि यह आपदा जलवायु परिवर्तन का परिणाम है। ग्रीन हाऊस गैस के बढ़ते स्तर का असर इस वर्ष तापमान पर साफ दिखा। भीषण गर्मी ने पुराने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर 48 डिग्री सेलिसयस पार पारा पहुंच गया। आग उगलती गर्मी ने दिल्ली समेत देश के कर्इ छोटे-बड़े शहरों एवं गांवों के लोगों व अन्य प्राणियों के लिए एक-एक क्षण गुजरना मुशिकल हो गया। पंखे, कूलर, एसी, फ्रीज सब बेकार साबित हुए। यह एक डरावनी संकट की ओर इशारा कर रहा है।
हालांकि, देश इस संकट के प्रति सचेत हो रहा है। पंजाब-हरियाणा से सबक लेकर अन्य प्रदेश भी रसायन का इस्तेमाल बंद कर, जैविक खेती की ओर अपना कदम बढ़ा रहे हैं। मिêी के बिगड़ते सेहत से चिंतित आंध्रप्रदेश के एक गांव पुन्नूकुला के किसानों ने पेसिटसाइडस व केमिकल फर्टिलाइजर्स का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। आंध्र प्रदेश अकेला राज्य है, जहां कीटनाशकों की खपत में 60 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। बिहार के कर्इ जिलों में किसान जैविक खेती कर पर्यावरण का संरक्षण कर रहे हैं। मुजफ्फरपुर जिले का गोविंदपुर गांव जैविक ग्राम के रूप में चर्चित हो गया है। इस जिले के सरैया, पारू, साहेबगंज, मुशहरी जैसे कर्इ प्रखंडों के दर्जनों किसान बिना सरकारी सहयोग के बड़े पैमाने पर जैविक खाद का उत्पादन कर अपने खेतों में पटा रहे हैं। साथ ही, उसकी बिक्री कर अच्छी कमार्इ भी कर रहे हैं।
बहरहाल, पर्यावरणजनित हालातों से निबटने के लिए क्योटो प्रोटोकाल, कोपनहेगन, अर्थ समिमट जैसे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ही काफी नहीं हैं। किसानों को भी पर्यावरणप्रेमी बनना होगा। गांव-गांव में, स्कूल-स्कूल में, घर-घर में पर्यावरण पर चर्चा व चिंता होनी चाहिए। सरकार भी कार्बन उत्सर्जन का स्तर कम करने के उपायों पर कदम उठा रही है। करीब पांच साल पूर्व यूपी व एमपी की सरकारों ने राज्य के सरकारी कार्यालयों में सीएफएल लगाने की पहल शुरू की थी। कुछ राज्यों में पालिथीन के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है। बिहार में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के जरिये पौधरोपण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। राज्य सरकार का संबंधित विभाग वर्मी वेड लगाने के लिए एवं पंचायतों में तालाब खुदवाने के लिए अनुदान दे रहा है। दरभंगा नगर निगम ने शहरवासियों को मकान में वाटर हार्वेसिटंग सिस्टम लगाने पर होलिडंग टैक्स में 5 फीसदी की छुट देने की घोषणा की है। ये कुछ सरकारी प्रयास हैं धरती को बचाने का। पर, जरूरत है कि हम भी इको फ्रेंडली बनें। सिर्फ कांफ्रेंस हाल में ही विचारने से नहीं होगा, बलिक खेत-खलिहानों में भी धरती बचाने के लिए चौपाल लगानी होगी।

http://hindi.indiawaterportal.org/node/45540

http://paper.hindustantimes.com/epaper/viewer.aspx

 

//

जलाशयों के साथ मखाने की खेती पर संकट

  • संतोष सारंग

बिहार खासकर उार बिहार जल संसाधनों एवं जलाशयों के मामले में धनी रहा है। नेपाल से निकलने वाली दर्जनों नदियां चंपारण, तिरहुत एवं मिथिलांचल से होकर गुजरती हैं, जो पहाड़ियों से गाद लाकर सूबे की मि?ी को उपजाऊ बनाती हैं। गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, नारायणी, कोसी, अधवारा समूह की नदियां, कमला बलान, करेह, बाया समेत दर्ज

नों छोटी-बडी नदियां इस इलाके की एक बडी आबादी के जीवन-मरण एवं धार्मिक आस्था से जुडी हैं। ये नदियां आर्थिक उपाजर्न का भी स्त्रोत हैं। इन नदियों के अलावा परंपरागत जलस्त्रोत यथा-कुएं, तालाब, नहर मन आदि भी जीने के आधार रहे हैं। मत्स्यपालन एवं मखाने की खेती इन्हीं जलाशयों में होती रही है। मगर, हाल के वर्षों में सिकुड़ते-सिमटते जलाशयों, भरे जा रहे तालाबों-कुओं के कारण इस पर आधारित कृषि कार्य एवं कारोबार प्रभावित हुआ है। जलीय जीव-जंतु व पौधे आदि नष्ट हो रहे हैं। पेयजल स्तर व जलवायु परिवर्तन पर कुप्रभाव पड़ रहा है।
मिथिला में एक कहावत मशहूर है। ‘पग-पग पोखर, माछ, मखान, ये हैं मिथिला की पहचान।’ इससे समझा जा सकता है कि इस इलाके में तालाब का कितना महत्व है? सीतामढ़ी, मधुबनी, दरभंगा, सुपौल, सहरसा, कटिहार, किशनगंज आदि जिलों में तालाबों की अच्छी-खासी संख्या होने की वजह से ये जिले मत्स्यपालन व मखाने की खेती के लिए मशहूर रहे हैं। मधुबनी में 10,755 तालाब हैं, जिनमें 4864 सरकारी एवं 5891 निजी तालाब हैं। इनमें से 1308 में मखाने की खेती होती है, जबकि 9447 तालाबों में मत्स्यपालन किया जाता है। पर आज स्थिति यह है कि मधुबनी जिले के आधे से अधिक तालाब रुगA हैं। मधुबनी जिला मत्स्य पदाधिकारी चंद्रभूषण प्रसाद कहते हैं कि तीन साल से औसत से कम बारिश हुई है। इस वजह से 60 फीसदी तालाब या तो सूखे हैं या सूखने के कगार पर हैं। इसका असर मत्स्यपालन एवं मखाने की खेती पर पड़ रहा है। नवानी गांव के किसान पंकज झा ने बताया कि यहां के तालाबो की सेहत बिगड़ रही है। तालाबों को जलमगA रखने के लिए बनाये गये ड्रेनेज सिस्टम ध्वस्त हो गये हैं। जनसंख्या के दबाव व अतिक्रमण के कारण यह सिस्टम अनुपयोगी हो गया है। छोटी नदियों को तालाब से कनेक्ट कर रिचार्ज किया जाता था। अब ये नदियां ही उथली हो गयी है, तो तालाब रिचार्ज कैसे होगा? इसका असर खेती के साथ-साथ जलस्तर पर भी पड़ा है। 10-15 साल पहले नवानी का जलस्तर 80 फुट नीचे था। आज घटकर 110-115 फुट पर आ गया है।
सहरसा के सीमावर्ती धैलार प्रखंड (मधेपुरा) के तीन पंचायतों परमानंदपुर, भटरंधा एवं भानपट्टी में मछुआरों के करीब 350 परिवारों की रोजी-रोटी मखाने की खेती पर ही निर्भर है। यहां 5-7 सरकारी जलकर हैं, जिसकी 2 साल से बंदोबस्ती नहीं की गयी है। निजी तालाब मालिकों का कहना है कि हमारे पास उतने पैसे नहीं हैं कि उड़ाही कराये। मत्स्यपालन में खतरा है। लोग रात में जहर डाल देते हैं। मनरेगा से उड़ाही कराने के लिए सरकारी कार्यालयों का चक्कर लगाना पड़ता है। इस कारण यहां के दर्जनों तालाब सूख गये हैं। बरसात में 3-4 महीने पानी रहता है। इस कारण सैकड़ों परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट उत्पन्न हो गया है। हालांकि, मधेपुरा में मनरेगा योजना के तहत करीब डेढ़ हजार तालाबों की उड़ाही का काम चल रहा है। तालाबों का शहर दरभंगा को ही लीजिए। इस शहर में एक समय 250 तालाब थे। फिलहाल इसकी संख्या घटकर 87 हो गयी है। दरभंगा स्थित ‘मखाना अनुसंधान केंद्र’ के वरीय वैज्ञानिक डॉ लोकेंद्र कहते हैं कि तीन साल से बाढ़ के नहीं आने के कारण जलाशयों में पानी कम हैं। कुछ में तो है ही नहीं। इस कारण जलस्तर में गिरावट आयी है। खासकर मखाने की खेती पर प्रभाव पड़ रहा है। हालांकि, इसका विकल्प ढूंढ़ लेने का दावा मखाना अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक करते हैं। डॉ लोकेंद्र ने बताया कि हमने 2009 में ‘फिल्ड बेज्ड मखाना प्रोडक्ट टेकAोलॉजी’ विकसित किया है। इस तकनीक की मदद से लो लैंड वाली जमीन पर खेतों के चारों ओर एक से डेढ़ फुट ऊंची मेड़ बनाकर उसमें पानी भरकर खेती कर सकते हैं। इस विधि से करीब 50 हेक्टेयर जमीन में मखाने की खेती की जा रही है। सामाजिक कार्यकर्ता अनिल रत्न का कहना है कि इस तकनीक से भले ही मखाने की खेती हो सकती है, लेकिन तालाब का विकल्प खड़ा नहीं हो सकता है। मखाने की परंपरागत खेती वाटर हार्वेस्टिंग आधारित खेती है। यह पारिस्थितिकी तंत्र को भी मजबूत करता है। वाटर रिचार्ज होता रहता है।
जमीन की आसमान छूती कीमतों, बढ़ती जनसंख्या, सरकारी विभागों के उपेक्षापूर्ण रवैये, सामाजिक जागरूकता की कमी एवं अतिक्रमण की वजह से जलाशय ख्त्म हो रहे हैं। जलीय जीव नष्ट हो रहे हैं। पशु-पक्षियों को गरमी में पानी पीने के लिए भटकना पड़ रहा है। खेती के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन पर भी बुरा असर पड़ना स्वाभाविक है। हालांकि मनरेगा के आने के बाद कुछ तालाबों की उड़ाही का काम जरूर हुआ है। इधर, राज्य सरकार ने भी इस दिशा में कुछ कदम उठाया है। सरकार हरेक पंचायत में 5-10 नये तालाब खोदे जाने के लिए किसानों को अनुदान दे रही है। नगर विकास विभाग ने भी घोषणा की है कि मकान में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम यानी सोख्ता लगाने वालों को होल्डिंग टैक्स में 5 प्रतिशत की छुट दी जायेगी।

पर्यावरण को समर्पित दो अनोखी शादियां

पेड-पौधों के बिना प्रकृति व प्राणियों के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। वृक्ष हमें फल-फूल व जीने के लिए ऑक्सीजन ही नहीं देते हैं, बल्कि वायुमंडल को स्वच्छ व प्रकृति को संतुलित भी करते हैं। इसी महा के कारण हमारे पूर्वजों ने पेडों की पूजा करने, सेवा करने की पंरपरा शुरू की थी। धार्मिक आयोजनों, रस्मों-रिवाजों, पर्व-त्योहा

Plantation on the marriage ceremony in Sasaram district, Bihar

रों से जोड़ कर पेड़-पौधों के प्रति आस्था व स्नेह पैदा किया। पीपल के पेड़ की जड़ में जल चढ़ाने, शादी के मौके पर आम व महुआ की शादी करने, तुलसी की पूजा करने, आंवले के पेड़ के नीचे खिचड़ी बना कर खाने जैसी दर्जनों परंपराएं पर्यावरण के हित में चलती आ रही हैं। हाल के दशकों में शहरीकरण, सड़कों के विस्तारीकरण, विकास के विनाशकारी मॉडल, भोगवादी प्रवृति के कारण हम अपनी अनूठी परंपरा को भूलते जा रहे हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई करने में तुले हैं। नतीजा सामने है। धरती तपने लगी है, तो सूरज भी भीषण गरमी पैदा कर रहा है। पारा 48 डिग्री सेल्सियस पार गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण कई संकट पैदा होने लगे हैं। ग्लोबल वार्मिंग ने दुनिया की चिंता बढ़ा दी है। यह चिंता दुनियाभर की सरकारों, गैरसरकारी संस्थाओं की ही नहीं है। धरती के बढ़ते संकट को देखते हुए पर्यावरण को संरक्षित कर

Plantation on the occassion of marriage ceremony in Samastipur, Bihar

ने की जवाबदेही जन-जन की है।

हालांकि, इस दिशा में स्थानीय स्तर पर भी कुछ पहल हो रही है, जो उम्मीदें जगाती हैं। इसी महीने बिहार में हुईं दो अनोखी शादियां चर्चा में रहीं। वर व वधु पक्ष के लोगों ने समाज को रास्ता दिखाया। बेटी के सपने को वनस्पति से जोड़ कर एक नयी परंपरा की शुरुआत की गयी है, जिसका चतुर्दिक स्वागत हो रहा।
छह मई को समस्तीपुर जिले के मोहनपुर प्रखंडन्तर्गत रामचंद्रपुर दशहरा गांव में बहन की शादी को याद्गार बनाने में सुजीत भगत जुटे थे। घर की महिलाएं बेटी की शादी के रस्मों-रिवाज पूरी करने में लगी थीं। गांव के लोग बरात के स्वागत की तैयारी में लगे थे। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी। इसी बीच दोपहर में लोगों का जमघट लगना शुरू हुआ। स्थानीय विधायक राणा गंगेश्वर सिंह, स्वतंत्रता सेनानी ब्रज विलास राय, शिक्षाविद् जनक किशोर कापर, डॉ सुनील कुमार, लडकी के पिता गणोश प्रसाद भगत समेत दर्जनों गणमान्य लोगों व ग्रामीणों की उपस्थिति में पंडित वैद्यनाथ प्रभाकर मंच से उद्घोषणा करते हैं कि शादी के इस पावन बेला में जरूरतमंदों के बीच 101 साड़ियां, 51 धोती एवं 101 पौधे उपहारस्वरूप भेंट किये जायेंगे। गरीबों के बीच साड़ी-धोती बांटी गयी। मंच से फिर घोषणा होती है कि जो इच्छुक व्यक्ति हैं वहीं पौधे लें। जो पौधे को अपनी संतान की तरह देखभाल करेंगे, उन्हें ही पौधे भेंट किये जायेंगे। मंच पर पौधे को संरक्षित करने की शपथ लेकर 87 लोग पौधे लेते हैं। शेष बचे 14 पौधों को लडकी पक्ष के लोगों ने घर के आसपास ही रोपे। ‘बेटी एवं पर्यावरण सुरक्षा हेतु पहल’ विषय पर करीब तीन घंटे तक गोष्ठी हुई। इसके बाद सराती पक्ष के लोग बराती के स्वागत में लग गये। रातभर शादी की रस्मों के बाद सुबह विदाई से पूर्व दूल्हा अमीर कुमार राय एवं दुल्हन पूनम कुमारी ने मिल कर एक पौधा रोप कर पर्यावरण को संरक्षित करने का संकल्प लिया। इस शादी में प्लास्टिक के सामान का प्रयोग पूर्णत: वजिर्त था। प्लास्टिक की जगह स्टील के 550 गिलास एवं पो के पाल का प्रयोग किया गया। सोनपुर निवासी दूल्हे के पिता गुलाबचंद राय समेत करीब 200 बरातियों ने इस पहल की सराहना की। गुजरात में बीमा निगम कर्मी के रूप में कार्यरत दूल्हा अमीर ने कहा कि ससुरालवालों के इस पुनीत काम की वजह से मेरी शादी याद्गार बन गयी। लड़की के भाई सुजीत बताते हैं कि मेरी इस योजना को परिवारवालों ने समर्थन किया, लेकिन गांव के कुछ लोगों को शुरू में यह कुछ अजीब लगा। शादी के बाद बधाइयां मिल रही हैं। वे कहते हैं कि जब मैं चौर में काम करने जाता था, तो उन गरीब-मजदूर महिलाओं को देख कर द्रवित हो जाता था जो छोटे-छोटे बच्चे लेकर काम करने खेतों में आती थीं। चौर में बड़े पेड़-पौधे नहीं होने के कारण जेठ की तपती धूप में बच्चे बिलबिलाते रहते थे और उसकी मां काम करती रहती थीं। तभी मैंने ठान लिया कि जीवन में पर्यावरण बचाने के लिए कुछ नया करुंगा।
स्थानीय विधायक राणा गंगेश्वर ंिसंह कहते हैं कि मैं इस शादी समारोह में मुख्य अतिथि था। सुजीत जी ने पुण्य का काम किया है। हम इस पहल को आगे बढ़ाने में मदद करेंगे। हम दूसरे लोगों से भी अपील करते हैं कि वे अपनी बेटी की शादी में भी पौधरोपण कर पर्यावरण बचाने के लिए आगे आयें।
इस शादी के दो हफ्ते बाद यह पहल आगे बढ़ती है। कुछ इसी तरह की शादी रोहतास जिले में भी होती है। शिवसागर प्रखंड का मोड़सराय गांव बनता है ‘इको फ्रेंडली शादी’ का गवाह। शिक्षाविद् जगदीश नारायण सिंह के पु़त्र राजीव रंजन एवं अकोढ़ीगोला गांव के विष्णुपद सिंह की लड़की अंकीता की शादी भी इलाके में चर्चा का विषय बन जाती है। 18 मई को तिलकोत्सव में मंत्रोच्चारण के बीच लड़के ने एक पौधा लगाया। 20 को बरात जाने को सजी कार में एक पौधा लेकर दूल्हा ससुराल पहुंचा। जयमाल के बाद वर-वधु ने पौधे लगाये। विदाई के समय वधु पक्ष की महिलाओं ने लड़की के खोईंछा में मोहिनी का एक पौधा दिया, जिसे 22 मई को बहुभोज के दिन नवदंपती ने लगाया। इस शादी में भी प्लास्टिक के बैग, गिलास व पाल का प्रयोग न के बराबर किया गया। आतिशबाजी नहीं हुई। लड़के के बड़े भाई डॉ राजेश नारायण सिंह के इस फैसले पर शुरू में कुछ लोगों ने हंसी उड़ायी, लेकिन बाद में लोगों का सहयोग मिलने लगा। पेशे से शिक्षक डॉ राजेश कहते हैं कि यदि पौधरोपण को मांगलिक कार्य से जोड़ दिया जाये, तो जैव विविधता में मजबूती, रिश्तों में प्रगाढ़ता एवं समाज में जागरूकता आयेगी। 2012 में अहमदाबाद में ‘एशिया पैसेफिक कुंजा कांफ्रेंस’ एवं हैदराबाद में ‘कॉप 11’ में हिस्सा लेकर लौटने के बाद डॉ राजेश ने तय किया था कि पर्यावरण संरक्षण के लिए लीक से हट कर कुछ करना है। वे इस काम को पहले अपने घर से ही शुरू करना चाहते थे। आगे उनकी योजना स्कूली छात्रों को लेकर इस अभियान को आगे बढ़ाने की है। स्थानीय विधायक जवाहर प्रसाद एवं जिला परिषद अध्यक्षा प्रमीला सिंह भी इस शादी की गवाह बनीं।

संतोष सारंग

panchayatnama